१८५ वर्णन में कविकुलशिरोमणि सूरदासजी की सुधावपिणो लेखनो ने बड़ी मार्मिकता दिखलाई है-आहा ! देखिये-- सोभित कर नवनीत लिए । बुद्धरुन चलत रेनु तनु मडित मुख दधि-लेप लिए। चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए । लट लटकान, मनो मत्त मधुपगन नादक मदहि पिए । कठुला कठ, बन, केहरि नख, राजत रुचिर हिए । धन्य 'सूर' एको पल या नुख का सत कल्प जिए ॥ १ ॥
हौ चलि जाऊँ छवीले लाल की। धूसर धूरि धुदुरूवनि रेंगनि बोलन वचन रताल को । छिटिक रहीं चहुँ दिसि जु लटुरियाँ लटकन लटकति भाल की। मोतिन सहित नासिका नथुनी कठ कमल-दल-माल की। कछुकै हाथ कछू मुख माखन चितवनि नैन बिसाल की। 'मृर' सु प्रभु के प्रेम मगन भई दिग न तजनि ब्रज बाल की ॥२॥
हरिजू की बाल छवि कहौं बरनि । सकल सुख की सीव कोटि मनोज-सोमा-हरनि । मजु मेचक मृदुल तनु अनुहरत भूखन भरनि । मनहुँ सुभग सिगार सुरतम् फन्यो अदभुत फरनि । लसत कर प्रतिबिव मनि आँगनं घुटुरुवनि चरनि । जलज सपुट सुभग छवि भरि लेत उर जनु घरनि । पुन्य फल अनुभवति सुतहि विलोकिकै नॅदधरनि । 'सूर' प्रभु की बसी उर किल कनि ललित लरखरनि || ३ ॥ हिंदी-साहित्य-गमन-मयंक गोस्वामी तुलसीदासजी का कवित्व-संबंधी सर्वोच्च सिहासन वाललीला-वर्णन में भी सर्वोच्च ही रहा है। क्या भाव-