की गरिमा के कारण, काव्य की एकमात्र उपयुक्त भाषा के रूप में साहित्यस्रष्टा कवि-राज-समाज में सर्व साधारण द्वारा अनुमोदित होकर धारण की गई है, उसी के लोक-प्रिय अनुपम आलोक से साहित्यादित्य* आलोकित होकर अद्यापि अवलोकित होते हैं। आपने अपनी रचना में ब्रजभाषा का तो प्रयोग किया है, किंतु यह ब्रजभाषा अन्य साधारण कवियो की-सी नहीं, वरन् अपने रंग-ढंग की विशेष ब्रजभाषा है। कहा जाता है कि भारतेंदु बाबू ने ब्रजभाषा तथा उसकी रीति-नीति में देशकालानुसार नवीन विशेषताओं का संचार किया था, कुछ अशों में यह ठीक हैं। किंतु यदि विचारपूर्वक एक निष्पक्ष न्याय- पोषक निरीक्षण की भाँति सूक्ष्म और विचार-पूर्ण दृष्टि से देखा जाय तो वास्तव में ब्रजभाषा को नवीन रूप से परिमाज्जित और संस्कृत करने का स्तुत्य कार्य इस काल में विशेषतया श्री॰ स्व॰ 'रत्नाकर' जी न ही किया है। उन्होंने साहित्यिक ब्रजभाषा का एक रूप निश्चित कर उसे परिष्कृत तथा परिपुष्ट कर प्रचलित किया है, आजन्म उन्होंने इसी भाषा की पूरी देख-भाल और सेवा की, और तब उसे अपने अनुकूल चलाने में समर्थ हो सके। श्री॰ 'रत्नाकर' जी ने ब्रजभाषा को साहित्यिक सौष्ठव एवं स्थैर्य के साथ एक निश्चित रूप से परिष्कृत तो किया किंतु उसे रखा प्राचीन ही रंग-ढंग में, उन्होने उसे निखारने का ही सफल सराहनीय प्रयास किया। श्री॰ उपाध्यायनी ने ब्रजभाषा में दूसरे प्रकार की विशेषताओं के निखारने का प्रयत्न किया है और अपने इस प्रशंसनीय प्रयास में वे सफल भी हुए है।
सब से बड़ी विशेषता, जो आप की ब्रजभाषा में स्पष्ट रूप से दृष्टि- गोचर होती है, यह है कि आपने अपनी भाषा में नवीन भावों को व्यंजित करने की क्षमता उद्दीप्त कर दी है, इसके लिये कहीं-कहीं उन्हें उसे विशेष रूप से चलाना भी पड़ा है। आपने प्रायः पुराने घिसे-घिसाये और प्रयोगच्युत ऐसे शब्दों के निराकरण या दूरीकरण से भाषा को
★साहित्य-सूर्य=सूरदास