१८३ हम कलंकित वनावेगी। आपस का वितंडावाद अच्छा नहीं, पारस्परिक कलह बुरा है। व्रजभापा के सेवको की संख्या आज भी कम नहीं है, उनका धर्म है कि वे प्राचीन दुरी प्रणाली को त्यागकर उसको उत्तमोत्तम नवीन आभरणो से सजावें। हिदी-साहित्य-क्षेत्र आजकल खड़ीबोली के उन्नायकों के हाथ में है, उन्हें चाहिये कि वे जिस प्रकार उसको सुसज्जित कर रहे हैं, उसी प्रकार उसको कूड़े-करकट से भी बचावे । उचित दृष्टि होने पर एक दूसरे के मार्ग का कंटक न बनेगी, और अपना उचित स्थान लाभकर समुचित कीर्ति प्राप्त करने में समर्थ होगी। वर्तमान समय शृंगार रस के अपने वास्तविक रूपमें विकसित होने का है, इस तत्व को हिंदी संसार जितना समझेगा, उतना ही शृंगारित और सुसन्नित होगा और वह स्थान लाभ कर सकेगा, जिसको ससार की समुन्नत भाषाएँ प्राप्त कर सकी हैं। कला के साथ उपयोगिता सम्मिलित होकर कितना उपकारक बन जाती है, मैं समझता हूँ इस विषय मे विशेष कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं । वात्सल्य रस • बालक परमात्मा का अधिक समीपी कहा जाता है, उसमे सांसारिक प्रपंच नहीं पाया जाता | जितना वह सरल होता है, उतनाही कोमल । छल उसे छूता नहीं, कपट का उसमे लेश नहीं। उसके मुखड़े पर हँसी खेलती रहती है, और उसकी चमकीली ऑखो से आनंद की धारा वहती जान पड़ती है। उसके मुसकुराने में जो माधुर्य्य है, वह अन्यत्र दृष्टिगत नहीं होता। वह जितना ही भोला-भाला होता है, उतना ही प्यारा। उसकी तुतली बाते हृत्तंत्री मे संगीत उत्पन्न करती है, और उसके कलित कंठ का कलनाद कानों में सुधा बरसाता है। वह दांपत्य सुख का सर्वस्व है, भाग्यवान् गृहस्थ-गृह का उज्ज्वल प्रदीप है, और है स्वर्गीय लीलाओ का ललित निकेतन । परमात्मा का नाम आनंदस्वरूप
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