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. , आस्काल न करेंगे, अथवा टट्टी को ओट में शिकार खेलना चाहेंगे, वे अपने चित्त के कल्मप को प्रकट करेगे, मेरे मानस के उद्गारों को नहीं । क्या लिखते क्या लिख गया, विपयान्तर हो गया। परतु अपने वक्तव्य को स्पष्ट करने के लिये ही मुझको इस पथ का पथिक होना पड़ा। कहना यह है कि प्राय सामयिकता के नाम पर बहुत-सी बुराइयाँ, भलाइयाँ बनकर समाज मे गृहीत हो जाती हैं। वर्तमान काल का हिदू- समाज और उसका अधुनिक कुत्सित साहित्य इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। वास्तविक बात यह है कि जितना कलुषित आजकल हिदी-साहित्य का कुछ अश हुआ अथवा हो रहा है, ब्रजभापा उतनी कलुषित कभी नहीं हुई। घृणित बाल-प्रेम के आधार से शृगार रस की इन दिनो जैसी मिट्टी पलीद हो रही है, उसके जैसे नारकीय चित्र उपन्यासो मे अकित किये जा रहे है, मासिक पत्रो और पुस्तको मे हिदु जाति के घर की भीतरी बातों का जैसा कच्चा चिट्ठा लिखा जा रहा है, वे रोमाचकर है, उनको इस रूप में देश और समाज के सामने लाना अनुचित है। विना दोष प्रदर्शन किये दोष का क्षालन नहीं हो सकता, यह सत्य है, परतु जुगुप्सा का नग्न नृत्य कदापि वाछनीय नहीं। उसके द्वारा वर्तमान हिदी-साहित्य जितना लाछित हुआ, ब्रजभापा वैसी कलकित कभी नहीं हुई। ब्रज- भापा मे जो शृगार रस का दुरुपयोग हुआ और उसमे अश्लील रचनाएँ हुई, इसका कारण समय है। उस समय उसको अपनी इस प्रकार की रचनाओ मे सुरक्षित रखना असभव था, उसी प्रकार जैसे कि आजकल खडी वोली के गद्य पद्य अपने को उन सामयिक दोपी से नहीं बचा रहे है, जो उसमे सुधार के बहाने प्रवेश कर रहे हैं । व्रजभाषा में जो दोप है हैं, उन- पर उँगली उठाना व्यर्थ है, उनसे यह शिना क्यो नहीं ली जाती, कि खडी- बोली भी चहले मे न फंसे। ब्रजभापा पर कीचड किस मुख से उछाला जा रहा है, जब खडीबोली उससे भी गई बीती वन रही है । दोनो अपनी ही सम्पत्ति हैं, उनकी उन्चलता हमारा मुख उज्ज्वल करेगी, उनकी कालिमा