१७६ " -> बचा जावे । जो बात किसी विशेप काल में विशेष कारणो से हो गई, जो चूक विपयासक्त राजा-महाराजाओ के ससर्ग से, थोडे या बहुत धन के लालच से की गई, उसकी पुनरावृत्ति व्यर्थ न होनी चाहिये । परतु वे आज भी सावधान नहीं हैं, वही अपना पुराना राग गाये जा रहे है दूसरे दलवाले शृगार रस के नाम से ही चिढते हैं, व्रजभापा से उनको विशेष घृणा इसलिये है कि वे उसको उसकी जननी समझते है। उनकी इस चिढ़ की उत्पत्ति विशेषकर शृगार रस की उन असयत रचनाओ के कारण हुई, जो सर्वसाधारण मे प्राय उन्होने सुनी या शृगार रस की प्राय प्रचलित पुस्तको मे देखी । जिस शृगाररस पर वे खड्गहस्त है, वह शृगाररस का बीभत्स रूप है । शृगार रस का वास्तविक रूप वह है, जो स्वय उनकी सव से अच्छी रचनाओ मे पाया जाता है, परतु इस बात की बे समझ नहीं पाते। वे न समझ, परतु शृगार रस से उनकी रचनाएँ ओतप्रोत हैं। उसको मै ही नही कहता, आजकल के अधिकांश हिदी के साहित्य सेवियो की यही सम्मति है। इन लोगों के जो दस-बीस अथ प्रकाशित हो चुके है, उनमे से किसी को उठा लीजिये, उस समय यह नात हो जावेगा कि मेरा कथन कहाँ तक सत्य है। उसके अधि- काश भाग में अवलोकन करने पर शृगार रस की धारा ही बहती मिलेगी। अब रहा तीसरा दल, इस दल में ही, सामयिकता अधिक है। युवकजन ही देश के प्राण है, उन्हींका मुख अवलोकन कर मातृभूमि की सूखी नसो में गर्म लोह प्रवाहित होता है। फिर यदि वे ही इस महामत्र का मर्म न समझे, तो इससे बढ़कर दुख की बात दूसरी कौन होगी? यह दल ही इस बात को भलीभॉति समझता है, और इसीलिये उमकी सेवा में तनमन धन से रत रहता है। उसकी अधिकांश कवि- ताएँ भी देशानुरागमयी होती हैं, फिर भी वह शृंगार रस की कविताया का अनादर नहीं करता। वह यथावसर उसकी सेवा भी करता रहता है, और ऐमी रचना उपस्थित करता है, जिनसे हृदय की ,
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