चित्रण सहज, सूक्ष्म किंतु मूल-मंत्र सूचक रूप से किया है और इस प्रकार रहस्यवादियों को भी सच्चे रहस्यवाद की पथरीली राह को रसीली करके दिखलाया है। यो ही अन्यत्र कतिपय स्थानों पर भी उन्होंने कितनी ही आवश्यक समस्याओं के सुलझाने, समझने तथा समझाने की ओर न्याय-निकेत सुदर संकेत दिये है।
ग्रंथ की रचना-वस्तु-सबंधी इन अवश्य अवलोकनीय और अनिवार्य रूपेण प्रशसनीय मौलिक विशेषताओं की ओर सूक्ष्मतया इस प्रकार संकेत करके यहाँ हम इस ग्रंथ की भाषा के संबध में भी सक्षेप से प्रकाश डालना उचित समझते हैं, क्योंकि भाषा की महत्ता भाव-सत्ता के समुख यदि अधिक नहीं तो न्यून भी कदापि नहीं है। कह भी सकते हैं कि रचना-क्षेत्र में भावों की अपेक्षा भाषा का ही महत्त्व अधिक प्रबल और प्रधान है। यद्यपि भाषा को भावों का परिधान-सा कहा जाता है तथापि यदि बिचारपूर्वक देखा जाय तो परिधान होते हुए भी यही प्रधान, भाव-प्रभाव-निधान और विचार-विधान विधायक ठहरती है। बिना भाषा के विचारो या भावों का विकास तथा विद्या-बुद्धि-विलास का प्रकाश हो ही नहीं सकता। भाव चाहे कितने ही अच्छे क्यों न हो—यदि वे अच्छी भाषा में अच्छे ढंग और रुचिर रचना रंग के साथ व्यक्त न किये गये तो वे सर्वथा अरोचक और अन्यथा ही से हो जाते हैं। चारु चोखी भाषा और अनोखी रीति-नीति से प्रकट किये गये विचार साधारण होते हुए भी असाधारण से होकर धारणा में धारण करने के योग्य और मनोज्ञ हो जाते हैं। इसलिये भाषा को रचना -कला में विशेष महत्त्व देकर सुसज्जित तथा वैचित्र्य-विनिमज्जित करके मृदु, मधुर, मनोहर बनाने के विविध विधान भाषा-भाव-भूषण के रूपो में बनाये गये हैं, अस्तु।
उपाध्यायजी ने इस ग्रंथ की रचना उस परम प्रशस्त परंपरा-प्रचलित सुललित व्रजभाषा में की है जो अपने मार्दव, माधुर्य आदि गेय गुणों