१७१ , धमनियों में उपण रक्त का प्रवेश कराया जावे, बंद ऑखे खोली जावे. भूलों को रास्ता बतलाया जावे, देशद्रोहियो को दबाया जावे, और एकता मंत्र का अपूर्व घोप किया जावे । ऐसी ओजमयी रचनाएँ की जावं. ऐसे मार्मिक पद्य लिखे जावे, ऐसे उत्तेजित करने वाले कवित्त बनाये जावे, ऐसे भावमय ग्रंथ रचे जावें और ऐसी ज्वलंत उत्साहमयी ग्रंथ-मालाये निकाली जाये जिनसे इष्ट-सिद्धि हो, उद्देश की प्राप्ति हो और भारतीय भी संसार मे अपना मुख उज्ज्वल कर सके, इसमे किसको आपत्ति है ? वरन् आजकल का यह प्रधान कर्त्तव्य है। कितु वातुल बनकर न तो सुधा को गरल कहा जावे, न चितामणि को कॉच । श्रृंगार रस जीवन है, जिस दिन आप उसका त्याग करेंगे, उसी दिन आप का स्वर्ण-मंदिर ध्वंस हो जावेगा, और आप रसातल चले जावेगे । आवश्यकता है कि आप शृंगार रस के मर्म को समझ और दूसरे को समझाये। शृगार रस ही वह रस है, जो निर्जीव को सजीव, नपुंसक को वीर, क्रियाहीन को सक्रिय और अशक्त को सशक्त बनाता है । शृगार रस ही वह मंच है, जिस पर चढ़कर आप उन मर्मस्थलो को देख सकेगे, जिनकी रक्षा से आप समुन्नति सोपान पर चढ़ उस श्रेय को प्राप्त कर सकेगे, जो मानव जीवन का प्रधान उद्देश है । मै यह स्वीकार करूगा कि श्रृंगार रस के नाम पर कुछ ऐसे कार्य हुए है, जो हमको अविहित मार्ग की ओर अग्रसर करते हैं। परंतु परमात्मा ने बुद्धि-विवेक किसलिये दिये है? वे किम दिन काम आवेगे ? जो देश का अथवा लोक का उद्धार करना चाहता है, और बुद्धि विवेक को ताक पर रख देता है, वह चाहता तो है वर्ग सोपान पर चढ़ना, कितु उसके पास वे दोनो ऑखे कहाँ है, जिनके विना ससार की यात्रा भी नहीं हो सकती। आजकल हिंदी काव्य-क्षेत्र मे तीन प्रकार के कवि देखे जाते हैं। एक वे हैं, जो बिलकुल प्राचीनता के प्रेमी हैं। आज भी वे उसी रंग मे रेंगे हुए हैं, जिसमे कविवर देव, महृदयवर विहारीलाल एवं रसिक- ।
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