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१७० लिखे गये हैं। यह सत्य भी हो सकता है, क्योकि उनकी ना.जुकखयाली बदिश, मुहावरो की चुस्ती, और कलाम की सफाई बडे-बडे उर्दू शोअरा के कान खड़े कर देती है। फिर भी यह स्वीकार करना पडेगा कि ब्रज भाषा की अधिकाश अमर्यादित रचनाएँ सामयिक प्रवृत्तियो और प्रवाहो का फल हैं। एक वह समय था, जिसने ब्रजभापा की इस प्रकार की कविताओं को जन्म दिया, आज वह समय उपस्थित है, जब ऐसी कविताओ की कुत्सा की जा रही है, साथ ही व्रजभापा को भी भला बुरा कहा जा रहा है और शृगार रस का नाम सुनते ही नाक-भौं सिकोडी जा रही है। किंतु यह भ्राति है। ब्रजभाषा साहित्य बहुत विस्तृत है, कबीर साहब के समय से लेकर आज तक जितन सत हो गये है, उन सब सता को वाणी लगभग ब्रजभापा मे है। जिस मुसलमान शासन काल मे ब्रजभाषा मे अवाछित कविताएं हुईं, उसी काल में देश मे महाराणा प्रताप, गुरु- गोविंदसिह, और वीर छत्रसाल आदि ऐसे-ऐसे नरकेशरी उत्पन्न हुए, जिन्होने निगले हुए कौर को शत्रु के गले में उँगली डालकर निकाल लिया। इतना ही नहीं, उनके उत्तेजन से ब्रजभाषा साहित्य मे वीर रस तथा अन्य रसो के ऐसे उत्तमोत्तम ग्रंथ बने, जिनका जितना गौरव किया जावे योड़ा है । शृगार रस की ही पवित्र प्रेम-संबंधिनी इतनी अधिक और अपूर्व कविताएँ उस समय हुई हैं, जिनके सामने थोडी-सी अमर्यादित कविताएं नगण्य और तुच्छ हैं, फिर क्या ब्रजभाषा की कुत्मा करना उचित है ? रहा शृगार रस-उसका नाम सुनकर जो कान पर हाथ रखता है, वह आत्म-प्रतारणा करता है, वह जानता ही नहीं कि शृगार रस किसे कहते है। मैं जानता हूँ कि समय क्या है ? और इस समय समाज और देश को किन बातो की आवश्यकता है, परंतु भ्रात वनने मे काम नहीं चलेगा. उचित पथ ग्रहण करने से ही सिद्धि प्राप्त होगी। देशानुराग के गीत गाये जावे, सोये देश को जगाया जावे, ग्वीस