१६७ विक वात यह है कि साहित्यदर्पण के सूत्र का यह भाव कदापि नहीं है। वह तो यह कहता है कि यदि सुरत वर्णन के समय गुप्त स्थानो का खुला नाम अश्लीलता बचाने के लिये न लिखकर उसका पर्यायवाची ऐसा कोई शब्द उसके स्थानपर लिख दिया जावे, जिसका दूसरा अर्थ भी हो वो वह शब्द अश्लील न समझा जावेगा, क्योकि उसका प्रयोग दोप दूरीकरण के लिये ही हुआ। ऐसी अवस्था मे साहित्यदर्पण का उक्त सूत्र सुरत वर्णन मे अश्लीलता का प्रतिपादक नहीं, वरन् विरोधी है। दूसरी बात यह कि जब स्पष्ट शब्दा मे कह दिया गया कि- 'अश्लीलत्व बीदाजुगुप्साऽमगलव्यजकत्वात् त्रिविधम्' "लना, घृणा और अमंगल व्यंजक होने से अश्लील तीन प्रकार का होता है।" साहित्यदर्पण । तो फिर वात गढ़ कर उस पर पर्दा डालने से हास्यास्पद ही बनना होगा, इष्ट सिद्धि न होगी। अश्लीलता का रूप इतना व्यापक है कि जो वर्णन लज्जाजनक, घृणाव्यंजक, और अमंगलमूलक होगा, वह सब अश्लीलता दोप से दूषित हो जावेगा । सुरत का वर्णन ही लन्नाजनक और घृणाव्यंजक है, यदि साहित्य का अंग समझ कर उसका वर्णन किया जावे ही तो उसको संयत से संयत होना चाहिये, न यह कि खुल खेला जावे, और कोढ़ मे खाज पैदा की जावे । यह तो साधारण सुरत वर्णन की बात है । माता-पिता का सुरत वणन तो हो ही नहीं सकता । नायिका के अंग प्रत्यंग और उनके हास-विलास और क्रीड़ादि का वर्णन भी किसी किसी कवि ने असंयत भाव से कर अपनी रचना को कामुकता का अखाड़ा बना दिया है । ये ऐसे दोप है कि इन पर पर्दा नहीं डाला जा सकता । फिर क्यो न कहा जावे कि इस प्रकार की रचनाओ में श्रृंगार रस का दुरुपयोग हुआ । श्रृंगार रस और वत्तमानकाल एक दिन था, जव भारतवर्ष मुसलमान सम्राटो के प्रवल प्रभाव से , ..
पृष्ठ:रसकलस.djvu/१८२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।