विषय अपने साधारण रूप में भी आ गये हैं वहाँ उनके अनीप्सित प्रभाव के अभाव को दूर करने के लिये भाषा दुर्बोध, गूढ़ तथा कुछ जटिल कर दी गई हैं, जिससे उस प्रसंग का अंतरंग, अंग उन्हीं सज्जन बाचकवृंद को अवगत हो सके जो कला-कौशल-प्रेमी और नीति-रीति नेमी होकर सत्सार-सराहक और गुण ग्राहक हैं और जिनके विद्या-व्रत-स्नात-वर-विवेक-जन्य-विचार उनके मनोविकार पर पूर्णतया प्रभाव डाल कर उन्हें स्वच्छंद छल-छंद की ओर नहीं दौड़ने देते। वास्तव में यही सत्कवि का कर्तव्य-कर्म और रचना-रस-रंग के नैर्मल्य का मुख्य मर्म है।
प्रायः यह देखा जाता है कि कवि लोग किसी एक विशेष रस (प्रायः श्रृंगार, वीर, करुण) में रचना करने का अभ्यास कर लेते हैं और इसीलिये उस रस में वे चोखी तथा कभी-कभी अनोखी रचना भी करते हैं। किंतु अन्य रसो की रचना करने में वे प्रथम तो समर्थ ही नहीं होते और यदि कुछ होते भी हैं तो सर्वथा सफल नहीं होते। यह परम-प्रखर-पांडित्य-पूर्ण, पटु-प्रतिभावान् सत्कवि-महान् का ही कार्य होता है कि वह प्रत्येक रस में सराहनीय सफलता से सुंदर, सुखद और रोचक रचना कर ले। महाकवि का यह एक प्रधान और विचक्षण लक्षण है। श्री॰ उपाध्यायजी में भी यह लक्षण आकर उन्हें महाकवि मानने के लिये पाठको को उसी क्षण प्रेरित करता है जब वे उनकी विलक्षण रचना का सम्यक् समावलोकन कर चुकते हैं। इस ग्रंथ में जिस रस के जो उदाहरण दिये गये हैं उन सब में उस रस का यथोचित परिपाक पाया जाता है, जिससे उनमें सरसता के साथ ही साथ सफल सार्थकता तथा स्वाभाविकता-सी मिलती है। साकारता और सजीवता तो कहीं भी किसी प्रकार कम हुई ही नहीं। इन उदाहरणों में भी उपाध्यायजी ने बड़ी मार्मिक, धार्मिक, उपयुक्त तथा उपादेय बातें कही हैं। अद्भुत रस के उदाहरणों में आपने "रहस्यवाद" के सच्चे स्वरूप और उसके गढ़-गहन, मोहन, मर्म अथवा रुचिर-रोचक रहस्य का चारु