१६३ यह राधा-कृष्ण-प्रेम का प्रवाह हिदी-साहित्य ससार मे इतना व्यापक है कि जो प्रेम के रंग में सच्चे जी से रॅगा, वही इस युगल-मूर्ति की प्रीति- डोरी मे बंध गया। हित हरिवंश और हरिदास आदि महात्मागण, अष्ट छाप के चैप्णव और घनानंद श्रादि सुकविगण ने इस रंग में रंगकर जो रचाना की हैं वे बड़ी ही भावमयी एवं मधुर हैं; स्थान-स्थान पर उनमें पञ्चे प्रेम का सुंदर चित्रण पाया जाता है---कुछ रचनाएँ बनानद को देखिये- गुरुनि बतायो राधा मोहन हूँ गायो सदा सुखद सुहायो वृदावन गाढे गहु अद्भुत अभूत महि मडन परे ते परे जीवन को लाहु हा! हा । क्या न ताहि लहु आनंद को घन छायो रहत निरंतर ही सरस सुदेय सा पपीहापन बहु रे। जमुना के तीर केलि कोलाहल भीर ऐसे पावन पुलिन पै पतित परि रहु रे॥ । अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेको सयानप वाँक नहीं। तहाँ साचे चलें तजि यापनपौ झिझकै कपटो जो निसाँक नहीं। वन आनँद प्यारे सुजान सुनौ इत एक तें दूसरो ऑक नहीं। तुम कौन सी पाटी पढ़े हो लला मन लेहु पै देहु छटॉक नहीं । हमसो हित के कितको नित ही चित बीच वियोगहि पोइ चले। सु अखेबट बीज ली फैलि पर्यो बनमाली कहाँ धौ समोइ चले। धन आनंद छाँह बितान तन्यो हमें ताप के अताप खोइ चले। काहूँ नेहि मूल ' तो बैठिये आइ सुजान जो नीजहिं बोइ चले ॥
पृष्ठ:रसकलस.djvu/१७८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।