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१६१ मै यह भी मानता हूँ कि जिस समय अपने सूफी धर्म के प्रेम की मधुरता और मोहकता की ओर कुछ मुसलमान धर्म के उन्नायक हिदुओ के हृदय को आकर्षित कर रहे थे, मलिक मुहम्मद जायसी जैसे सत्कवि प्रेम कहानियॉ हिदी मे लिखकर हिदुओ के मानसचित्रपट पर लैला- मजनूं, शीरी फरहाद एव यूसुफ-जुलेखा की प्रेम प्रणाली का चित्र अंकित कर रहे थे । जब निर्गुणवादा संतो के चेले खंजरी पर विराग के गीत गा-गा हिदू जनता को घर-बार छोड़ने के लिये उत्सुक बना रहे थे, उसके हृदय मे देवी देवता की अग्रीति उत्पन्न कर उसे निरुद्देश्य बनाने मे दत्त-चित्त थे, उस समय विष्णु स्वामी, निम्बार्काचार्य और विशेष कर महात्मा वल्लाभाचार्य ने प्रेममय श्रीकृष्ण की उपासना के लिये श्रीमती राधिका का अनुराग और त्याग-पूर्ण-आदर्श उपस्थित कर जो उपकार हिंदू-जाति का किया वह स्वर्णाक्षरो मे लिखने योग्य है । उसके प्रभाव ने जहाँ ऐसे लोग उत्पन्न किये, जिन्होने समझा कि भगवद्भक्ति अथवा ईश्वरानुराग प्राप्ति के लिये गृह-त्याग आवश्यक नहीं, वहॉ चैतन्य देव जैसे महापुरुप और मीराबाई जैसी पवित्र-चरित्रा रमणी को भी जन्म दिया। जिन्होंने श्रीमती राधिका के आदर्श पर प्रेममय जीवन व्यतीत कर अपना ही नहीं, भारतवर्ष के अनेक प्राणियों का उद्धार किया । आज भी बंगाल-प्रांत में करोड़ों स्त्री-पुरुष चैतन्य देव के आदर्श पथ के पथिक हैं। मीराबाई के हृदय मे प्रेम की कैसी प्रबलधारा बही, उसको निम्नलिखित पद्यो मे देखिये- बसो मेरे नैनन में नंदलाल । मोहनी मूरति साँवरी सूरति नयना बने .बिसाल ।। अधर सुषारस मुरली राजित उर बैजंती माल । छुद्र घटिका कटितट सोभित नूपुर सन्द रसाल । मारा प्रभु सतन सुखदाई भक्तवछल, गोपाल ॥१॥ ११