१५६ -सस्कृत-साहित्य अश्लीलता तो मानता है, कितु जहाँ कोई विषय किसी भाव के न वर्णन करने से अपूर्ण रह जाता है, अथवा जहाँ कोई आशय प्रसग प्राप्त सत्य है, वहाँ वह उसकी पूर्ति को ही प्रधानता देता है। उस समय वह अश्लीलता के फेर में नहीं पड़ता। क्योंकि अश्लीलता की भी सीमा है। वैद्यक ग्रथो में जहाँ नाना रोगों की व्याख्या है, क्या वहाँ गुमांगों के रोगों का वर्णन न होगा, अवश्य होगा और यदि अवश्य होगा, तो उन अगो के एक-एक अश का क्या खुला निरूपण उसमे न मिलेगा? यदि मिलेगा, तो क्या इससे ग्रथ में अश्लीलता आ जावेगी? कोपों में वे शब्द मिलते हैं, मुख से जिनका उच्चारण करते सकोच होता है। उनमें ऐसे शब्द मिलते ही नहा, उनका पूरा विवरण भी होता है, तो क्या इससे कोप निदनीय बन जाता है ? स्त्री के वे अग जो सदा गुम रखे जाते हैं, जिनकी ओर दृष्टि उठाकर देखना भी अभद्रता समझी जाती है, जिनकी चर्चा भी कलकित करती है । डाक्टर उन्हीं अगों की जॉच पडताल करता है, उनका स्पर्श करता है, आवश्यकता होने पर उनको टटोलता है. उनको चीरता-फाड़ता है, तरह-तरह से उन्हें देखता-भालता है, परन्तु यह कार्य गर्हित नहीं माना जाता और न डाक्टर ही को कोई बुरा कहता है, क्योकि उसका उद्देश्य सन् है। ऐसा करने के समय वह मनोविकार- ग्रात नहीं होता, और न उसकी निर्दोप मनोवृत्ति पापवासना-मूलक होती। विशेपज्ञ लोग कला की सांग पूर्णता के लिये साहित्य- कारो के अश्लीलता उपेना-सबधी कार्य को इसी प्रकार का मानते हैं। मत-भिन्नता को कहाँ स्थान नहीं, परन्तु एक हद तक वह सिद्धात म्वीकार किया जा सकता है । मैं समझता हूँ, सस्कृत-साहित्य की इस प्रकार की बहुत सी रचनाएँ इस हट के अदर आ जा सकती हैं। परतु उममे भी ऐसे कवि पाये जाते हैं, जिनकी काम-वासनामय प्रवृत्ति उनसे ऐसी अश्लील रचना कराने में समर्थ हुई है, जो किसी भॉति
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