लेश है, किंतु हो वह सच्चा कवि। जितने भी सच्चे कवि हुए हैं, सभी ने समाज-हित के लिये अपनी रुचिर रसना से सुधार-रस-धारा प्रवाहित की है, सभी ने उचित उन्नतिकारी, उपकारी उपदेश देश-समाज को दिये हैं। यही कार्य उपाध्यायजी ने भी किये हैं।
“रस-कलस” शब्द ही ग्रथ के वर्ण्य विषय को स्पष्ट रूप से प्रकट कर देता है, इसलिये इस संबंध में यहाँ केवल इतना ही कहना सर्वथा अलम् है कि इस ग्रंथ में काव्य के श्रृगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बोभत्साद्भुत और शान्त नामक नवो रसों, उनके है स्थायी और ३३ सचारी भाषों, विभावों (आलंबन-जिसके अतर्गत है, समस्त नायक नायिका-भेद और उनका नख-शिख-वर्णन, और उद्दीपन- जिसके अदर आते हैं सखा-सखी भेद और कर्म, समय, स्थान, प्रकार तथा षटऋतु-वर्णन ) और ४ प्रकार के अनुभावों (जिनके अदर अंगज, अयनज और स्वभावज हाव-भावादि अलकार आ जाते हैं) का यथो- चित और यथाक्रम सर्वांग-पूर्ण सुदर और सराहनीय विशद वर्णन किया गया है। सर्वत्र उदाहरण मंजु, मृदु, मधुर और मौलिक दिये गये हैं। प्राय अन्य रस-ग्रंथों मे श्रृंगार रस का ही विस्तार दिखलाया जाता है और विभावानुभावादि सबधी उदाहरणो में भी इसी रस को प्रधानता दी जाती है, तथा अन्य रसों का केवल सूक्ष्म परिचय मात्र दे दिया जाता है जिससे वाचक-बूंद को यथेष्ट ज्ञान नहीं हो पाता। यह प्रथ इस न्यूनता से सर्वथा मुक्त होकर समस्त रसों के विशद वर्णन से संयुक्त हो अधिक उपयुक्त बन गया है। शृगार रस चूंकि सर्व-रस-प्रधान रसराज तथा साहित्य-शिरमौर माना गया है, इसलिये उसके समस्त अंग-प्रत्यंग का नवरग ढग-रंजित तथा विविध-विचार-व्यंजित विमल-वासना-वलित, सुकल्पना-कलित, अति ललित वर्णन किया गया है। केवल कुछ ऐसे ही विषय छोड़ दिये गये हैं जो इतने अश्लील हैं कि उनका सर्वथा सुशिष्ट और सुरुचिमिष्ट बनाना असंभाव्य ही सा ठहरता है, जहाँ तनिक भी ऐसे