स्थान-स्थान पर दिखलाई गई है। दूर से देखने पर दिव्यदामाभिराम पाश्चात्य देशो के उन दुर्गुणो की मिथ्या मनोहरता के बड़ी युक्ति तथा मार्मिकता से दिखलाने की चेष्टा की गई है, जिनकी वहिरंग-रंग रुचिरता स समाकृष्ट हो, भ्रांत नवयुवक मृगतृष्णा में भूले-भटके तथा तंग आये कुरंग-वृंद-से पथ-भ्रष्ट अथच ताप-तप्त बन पश्चात् पश्चात्ताप करते फिरते है। यही उपाध्यायजी का कवि-संदेश देश के लिये जान पड़ता है। रचना का एक दूसरा प्रधान उद्देश्य भी यही प्रतीत होता है। वास्तव मे प्रत्येक लेखक एवं कवि का यहा मुख्य कर्तव्य-कर्म तथा परिपालनीय धर्म है कि वह अपनी रचना के द्वारा अपने देश तथा समाज की समय-संमानित सभ्यता-संस्कृति का संरक्षण करता हुआ प्राचीन परंपरा का यथेष्ट ( यथावश्यकता) परिमार्जन एवं परिशोधन कर अपने वास्तविक धर्म-कर्म का प्रचार करे, और पर-प्रभाव-प्रभावित एवं भ्रम-भूल से भूले हुए नवयुवको को सत्पथ पर अग्रसर कर देश-जाति के हित-संपादन मे लगे-लगाये। जो लेखक या कवि अपने ऐसे उत्तरदायित्व को नहीं समझते और देश-जाति के हिताहित का ध्यान नहीं रखते या परखते वे वास्तव मे रचयिता-राजि-भूपण होकर भी देश-दूपण ही ठहरते हैं। उनकी अमूल्य रचनाएँ भी विना मूल्य हो लुप्त होती हुई अपने साथ समय के गुप्त-गहर में उन्हें भी सदा के लिये सुप्त कर देती हैं। कोई भले ही इस प्रकार के कवि को उपदेशक तथा समाज-सुधारक कहता हुआ उसके स्थान को कुछ दूसरा दिखलाने का प्रयत्न करे और उसे कुछ कम महत्त्व दे――यद्यपि वास्तव में इन गुणों के कारण उसका स्थान एवं महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है-किंतु ऐसा समझदार संसार उस व्यक्ति के ऐसे कथन को ही महत्त्व न देगा जो यह जानता है कि कवि ही वह व्यक्ति है जो देश-जाति को उन्नत एवं श्रवनत करने, बनाने-बिगाडने, योग्यायोग्य पद देने में समर्थ होता है। कवि तो वस्तुतः सृष्टि का स्रष्टा है ( “कविर्मनीपो परिभू स्वयम्भूः”-वेद ) वही अखि
पृष्ठ:रसकलस.djvu/१६
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ६ )