१४० । दुगेधि भी मिलती है, व्यजन इसलिये नहीं खाना चाहिये कि वह रोग- प्रवण भी होता है और आग को इसलिये काम में नहीं लाना चाहिये कि उससे उँगलियों भी जल सकती हैं। ऐसे लोगों का विचार कहाँ तक मान्य है, इसको आपलोग स्वय समझ सकते हैं । गुण समूह में जिनकी दृष्टि साधारण से साधारण दोष पर ही रहती है, वे हों कैसे ही, परतु इस विचारवाले लोग भी हैं। अपने सिद्धातानुसार वे ब्रजभापा के नखशिख वर्णन को अच्छी दृष्टि से नहीं देखते । कितु नखशिख वर्णन भी परंपरा द्वारा ही व्रजभाषा में गृहीत हुआ है। तर्क करनेवालों का यह कथन है कि उसने फारसी और उर्दू से यह प्रणाली ग्रहण की है, किंतु यह सत्य नहीं है। कवि-कुल-गुरु कालिदास ने कुमारसभव के सातवे सर्ग मे हिमाचल-नंदिनी के अनेक अंगों का बड़ा सुदर वर्णन किया है । विवाह काल में सखियों ने उनको जैसे सुसज्जित किया, उसका वर्णन बडा हो मनोमोहक है । इसके अतिरिक्त अगों के उपमानों की कल्पना ब्रजभाषा के कवियो की नहीं है, वे वे ही उपमान हैं, जो सस्कृत के प्राचार्यों द्वारा वर्णित हैं । कवि-प्रिया में कविवर केशवदास ने इस विपय का बड़ा विशद वर्णन किया है । वे यह भी लिखते हैं- सिख लौं वरनिये, देवी दीपति देखि । सिख ते नख लौ मानुखी, केसवदास विसेखि ॥ इस नियम का उल्लेख उन्होने प्राचीन आचार्यों के मन्तव्य अनुसार ही किया है, इससे पाया जाता है कि नखशिख-वर्णन-प्रणाली परपरागत है। हॉ, यह अवश्य है कि ब्रजभाषा में उसका विस्तृत रूप देखने में आता है । कारण इसका उर्दू एव फारसी रचनाओ से हिंदी भापा का उत्कर्ष साधन है, क्योकि उस काल के अधिकाश कवियों मे यह प्रवृत्ति पाई जाती है। उस समय अपनी भाषा की रक्षा के लिये ऐसा करना आवश्यक था । अव रहे स्वकीया, परकीया और गणिका के विपय । स्वकीया की नख
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