१३८ रसमय हो जाता है, किंतु यदि वह वीतरागी होता है, तो सब ओर नीरसता फैल जाती है। मैं शृगार रस की प्रधानता का प्रतिपादन कर आया हूँ, यह भी बतला चुका हूँ कि शृगार रस ही सब रसों का जनक है। यही कारण है कि सस्कृत भाषा के साहित्य में शृगार रस का स्रोत बहता है। कवि-कुल-गुरु कालिदास के समय से लेकर पडितराज जगन्नाथ के समय तक जितने बड़े-बड़े काव्यकार हो गये हैं, जितने लोगो न लक्षण-प्रथ, अलकार-प्रथ, अथवा छोटे-बड़े रस-पथ, नाटक, चपू , किवा प्रबध ग्रथ लिखे है, उपन्यास, कथानक या मुक्तकों की रचनाएँ की हैं, उनमे से अधिकाश मे शृगार रस की ही छटा देखने मे आती है। अन्य विषयों मे भी शृगार का पुट कुछ-न-कुछ अवश्य रहता है। कारण इसका यही है कि ससार रस का ग्राहक है, और सरसता बिना .शृगार के आती नहीं। पुराण, उपपुराण अथवा सहिताए धर्म दृष्टि से लिखी गई हैं, परतु उनमें भी प्राय शृगार रस का मधुर आलाप ति गोचर होता है। प्राकृत और अपभ्रश के साहित्य ग्रथो की भी यही दशा है। सातवाहन की प्राकृत गाथा सप्तशती को देखकर ही आचार्य गोवर्धन ने 'आर्या सप्तशती' की रचना की। दोनो मे ही शृगार छलका पड़ता है । विरोध करनेवालों ने उस समय भी उसका विरोध किया और मूल पर ही कुठाराघात करना चाहा। काव्य की ही निंदा कर डाली, लिख मारा- "असभ्यार्थाभिधायित्वान्नोपदेष्टव्य काव्यम्" 'अश्लील भावो का द्योतक होने के कारण काव्य की रचना न होनी चाहिये। पर इसको किसी ने न सुना-यह वात नक्कारखाने में तूती की आवाज हुई, क्योकि स्वाभाविक भावो का प्रतिरोध नहीं होता । प्रयोजन यह कि शृगार रस का स्रोत चिर काल से प्रवाहित है, वह संस्कृत से
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