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१३७ - व्यापक उद्देश का एक देश मात्र है। मैंने उपयोगिता के उदाहरण बज- भाषा के पद्यो को उठाकर ही दिये हैं, इसलिये नहीं कि संस्कृत मे इस प्रकार के पद्य नहीं है, वरन् इसलिये कि जिसमे व्यर्थ ग्रंथ के कलेवर की वृद्धि न हो। शृंगार रस और ब्रजभाषा शृंगार रस की रचनाए यदि कला की कसौटी पर कसे जाने पर ठीक उतर जाती, तो भी किसी को उनपर उँगली उठाने का अधिकार न होता, क्योकि कला की सार्थकता कला तक ही परिमित है। यदि कला की दृष्टि से कोई कला पूर्ण पाई गई तो उसको पूर्णता प्राप्त हो गई, फिर उसमे कोई न्यूनता नहीं मानी जा सकती। नायिका भेद की रचनाएं ऐसी ही हैं अतएव वे अभिनंदनीय हैं, उपेक्षणीय नहीं। जब उनमे उपयोगिता भी पाई गई, तो उनके लिये मणिकांचन योग हो गया, वे सब प्रकार आदरणीय हो गईं। इतना ही नहीं उनकी उद्भावना ऐसे महापुरुपो द्वारा हुई है, जो सत्यव्रत ही नहीं अर्चनीय भी हैं । भरत मुनि स्वयं प्राप्त हैं, किंतु उन्होंने शृंगारादिक अष्ट रसो का आविष्कारक जिनको माना है, उनको महात्मा विशेषण दिया है, वे लिखते हैं एते ह्यष्टो रसा. प्रोक्ता द्रुहिणेन महात्मना' इसलिये नायिका भेद की कल्पना लोकहित कामना से ही हुई है, यह स्वीकार करना पड़ेगा। फिर भी उसके कारण शृंगार रस आजकल अच्छी दृष्टि से नही देखा जाता । नायिका-भेद-संबंधिनी श्रृंगार रस की अधिकतर रचनाएँ ब्रजभाषा मे हैं, अतएव इसी सूत्र से आजकल ब्रजमापा की छीछालेदर भी की जा रही है। विचारणीय यह है कि इस विषय में ब्रजभापा का उत्तरदायित्व कहाँ तक है- अग्निपुराण का वचन है- ” गारी चेत् कविः काव्ये जातं रसमयं जगत् । स चेत् कविर्वीतरागी नीरस व्यक्तमेव तत् ॥ भाव यह है कि यदि कवि शृंगारी होता है, तो उसके काव्य से जगत -