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१३६ है, फूल और कॉटों में क्या भेद है, सुधा क्यों वांछनीय है और गरल क्यों निंदनीय, यह मिलान करने पर ही जाना जा सकता है। जैसे पुरुष जीवन को परकीया कलंकित करती है, और गणिका नष्ट ; उसी प्रकार स्त्री जीवन को लाछित करता है उपपति, और कष्टमय बनाता है वैसिक । इसलिये एक को दूसरे के यथार्य परिचय की आवश्यकता है। नायिका भेद के ग्रंथ इन उद्देशों को सामने रखकर लिखे गये हैं। यह देखा जाता है कि अनके पुरुष स्त्रियों द्वारा इसलिये आदर नहीं पाते, वरन् वचित और तिरस्कृत होते है कि उनमें रसज्ञता नहीं होती, और वे उन कलाओं के ज्ञाता नहीं होते, जिनसे ललनाकुल को अपनी ओर आकर्पित किया जा सकता है। इसी प्रकार कितनी स्त्रियों को इसलिये दुख भोगना और पति के प्यार को गॅवाना पड़ता है, कि उनमें न तो भाव होते हैं, जो मनों को मुट्ठी में करते हैं, और न वे मनोहर ढग, और न वे मधुर व्यवहार जो हृदय के सुकुमार भावों पर अधिकार करते और नीरस मानसों में भी रस-धारा बहाते हैं । नायिका भेद के अथ इन बातो का भी प्रतिकार करते हैं, और बड़ी सरसता से वे मार्ग बतलाते हैं, जिन पर चलकर स्त्री पुरुप दोनों अपने जीवन को सुखमय वना सकते हैं । जैसे कुछ विद्याएँ और कलाएँ ऐसी हैं, कि जिनका कुछ न कुछ ज्ञान होना जीवन के लिए उपयोगी है, वैसे ही साहित्य के इन अग पर भी अधिकार होना आवश्यक है। ससार में सर्वज्ञ कौन है, अल्पज होना अच्छा नहीं, इसलिये जहाँ तक हो सके प्रत्येक पुरुष और स्त्री विशेष आवश्यक विपयों का विज्ञ बनने की चेष्टा अवश्य करे । विनता ग्रन्थ पढ़कर हो नहीं लाभ की जा सकती। विपयज्ञों का साथ करके भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है । नायिका भेद की उपयोगिता के विषय मे मैं बहुत कुछ लिख चुका । मेरा विचार है, कि सदुद्देश से ही उसकी रचना हुई है । निर्दोप आमोद प्रमोद और सरस हास विलास का उत्तेजन भी उसके सृजन का हेतु हो सकता है। किंतु यह उसके