१३१ . . कटकाकीर्ण और दुर्गम है, समाज के स्त्री पुरुषो की रहन-सहन प्रणाली साधारणतः क्या है ? वह कैसी विचित्रतामयी है ? उसके चक्र मे पड़- कर जीवन यात्रा मे क्या क्या परिवर्तन हो जाते हैं ? हिदू-समाज की व्यापक रूढ़ियों क्या हैं ? स्त्री पुरुपो मे क्या क्या चालबाजियाँ होती हैं ? आपस मे वे एक दूसरे के साथ कैसी कैसी कुटिलताएँ करते हैं, वियोग-अवस्था में उनकी क्या दशा होती है, और सुख के दिन उनके कैसे सुंदर और आनंदमय होते हैं, इन सब बातो का व्यापक वर्णन आपको नायिका भेद के ग्रंथो में मिलेगा। कार्य क्षेत्र के लिये सम्यक ज्ञान ही उपकारक है। संसार का सुरव दुःख सहयोगियो के मानसिक भावो के नान अबान पर हो निर्भर करता है, अतएव उनके साधनो की उपेक्षा उचित नहीं । किस युक्ति से उन ग्रंथो मे इन बातो की अवतारणा हुई, फिर वे कैसे पल्लवित पुष्पित बनी, कुछ इसे भी देखिये- ससार स्वार्थमय है, दूसरे का कलंक अपने सिर पर कौन लेता है। परंतु सच्चा प्रेम अद्भुत कर्मा है, वह यह कार्य भी करता है। आप ऑच सहता है, परंतु अपने प्रेमपात्र को ऑच नहीं लगने देता। एक कुल-ललना का आत्मत्याग देखिये-उसका पति नपुंसक है, अतएव वह अपने को बॉझ कहा जाना पसंद करती है, किंतु भेद नहीं खोलती। सुत हित सुनो पुरान यों लोगन कह्यो निहोरि । चाहि चाह युत नाह मुख मुसिक्यानी मुख मोरि । गुरु जन दुजे व्याह को प्रति दिन कहत रिसाइ । पति को पति राखति बहू आपुन बाँश कहाइ । प्रायः कहा जाता है, भारतीय सभ्यता स्त्री जाति के विषय मे उदार नहीं है, यहाँ की पुरुप जाति स्त्री जाति का संमान करना नहीं जानती । यह वृथा लांछन है, जहाँ महापुरुपों के ये वाक्य हैं,- प्रत्यक्ष देवता माता जाया छायास्वरूपिणी । स्नुषा मूर्तिमती प्रीतिः दुहिता चित्तपुत्तली ।
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