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१२८ n आवै यही अब जी से विचार सखी चलि सौतिहुँ के घर जैये। मान घटे ते कहा घटिहे जा पै प्रानपियारे को देखन पैये ।। लखि सामुहिं हास छिपाये रहै ननदो लखि ना उपजावति भीतहिं । सौतिन सों सतराति कबौ न जेठानिन सा नित ठानति प्रीतहि । दासिनहूँ सों उदास न 'देव' बढ़ावति प्यारे सा प्रोति प्रतीतहिं । धाय सों पूछति बातें बिनै की सखीन सा सोखै सुहाग की रीतहि ॥ पाश्चात्य स्त्रियो के लिये सौत की कल्पना भी प्रकपितकरी है, कितु भारतीय ललनाओ में इतनी सहनशीलता होती है, कि 'सौतिन सो नाहिं सपनेहूँ मैं लरति है,' वरन् एक कवि के कथनानुसार 'आपने सुहाग भरे भाल पै लगाई भटू सौतिन की मॉगहूँ मै सेदुर भरति है, कहा जा सकता है, यह कवि कल्पना है । मैं कहूगा कवि कल्पना नहीं, हमारे परम्परागत साहित्यजन्य सस्कृति का माहात्म्य है, कुलीन घरों मे जाकर देख लीजिये, ऐसी महान हृदया स्त्रियों का अभाव अब भी नहीं हुआ है । फिर जब तक समाज मे किसी भाव का प्रचलन न होगा, तब तक कवि लेखनी से उसकी प्रसूति कैसे होगी ? साहित्य समाज के आचार व्यवहार का ही प्रतिबिब होता है, वह आरभ यो ही होता है, काल पाकर वह स्वय आदर्श भले ही वन जावे । जिस दशा मे पाश्चात्य स्त्रियाँ 'डाइवोर्स' करने को तैयार हो जाती हैं, आवेदन-पत्र लेकर कोर्ट में दौड जाती हैं, उस अवस्था मे भी हमारी कुल-बालाएँ कितने सयम से काम लेती हैं । यह कविता की पक्तियों बतला रही हैं। अब रहा यह कि प्रणाली कौन अच्छी है, हमारी कुलललनाओ की अथवा योरोपियन स्त्रियो की ? मैं कहूँगा, जरा आँख उठाकर योरोप अथवा अमेरिका के वर्तमान सामाजिक हलचल को देखिये, उस समय प्रश्न का उत्तर आप ही मिल जावेगा। मर्यादा और शिष्टता सभ्यता की सहचरी है, उनकी रक्षा से ही मानवता की शोभा होती है । उनका पालन सम्मानित तो करता ही है,