१२७ ~ का निर्वाह सफलतापूर्वक कैसे होगा । इसी प्रकार जब तक सब प्रकार के पुरुषो से ललनाए अभिज्ञ न होगी तब तक क्या पद-पद पर उनके पतन की संभावना न होगी ? संसार विचित्रताओ का आकार है। हमारे सामने विवा फल है, और रसाल भी; ईख है और नरकट भी; सुधा है और गरल भी, तब तक हम कैसे उन्हें पहचानेंगे जब तक उनकी परीक्षा न करेंगे। परीक्षा तब तक कैसे करेंगे, जब तक हमको अनुभव न प्राप्त होगा । यह अनुभव चाहे पुस्तक द्वारा प्राप्त हो, चाहे अन्य साधनो से । अनेक दृष्टियो से पुस्तक द्वारा प्राप्त अनुभव ही सर्वोत्तम है, क्या नायिका विभेद की पुस्तके, ऐसी हो पुस्तकें नहीं हैं ? क्या स्त्री- पुरुष के संबंध का ऐसा सूक्ष्म विवेचन किसी अन्य पुस्तक में भी है ? रूप का मोह कामनामय होता है, कितु प्रेम त्यागमय । नायिका भेद की म्बकीया त्यागमयी होती है, क्योंकि आर्य ललनाओं के त्यागमय जीवन की ही प्रशंसा है । उसको वही आदर्शप्रिय है, जो उच्च है, और जिसमे लोक-हित की वासना है। वह अपने सुख से ही सुखी नहीं रहती, वह अपने प्राणधन के सुख पर ही उत्सर्गीकृत जीवन होती है। वह पति के कुटुंव को उसी आँख से देखती है, जिस ऑख से उसका पति उसे देखता है । वह पति के कर्तव्य को ही अपना कर्तव्य समझती है, अतएव स्वार्थमय परिवार में भी शांति की मूर्ति बनी रहती है। वह होती है तो मानवी, कितु सब की दृष्टि में देवी दीखती है, क्योकि दिव्य गुण ये ही तो हैं। एक स्वकीया का चित्र देखिये- मेवा ही में सास औ ससुर की रहे सदैव सौतिन सो नाहि सपनेहूँ मैं ठरति है। सोलसुधराई त्यो सनेहभरी सोहति है रोस-रिस-रार ओर क्योहूँ ना ढरति है। 'हरिऔध' सकल गुनागरी सती समान सूधे सूधे भायन सयानप तरति है। परम पुनीत पति-प्रीति मैं पगी ही रहै, प्रानधन प्यारे पै निछावर करति है ।। नैनन को तरसैये कहाँ लौं, कहाँ लौं हियो बिरहागिनि तैये । एको घरी न कहूँ कल पैये कहाँ लगि प्रानन को कलपैये ।
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