१२६ पतिपरायणा, लज्जावती, सहृदया, सदाचारिणी एवं उदारस्वभावा है, तो समझना चाहिये, परम्परागत सत्साहित्य के अंक में लालित होने का ही यह सुपरिणाम है, और यदि वह कोपनस्वभावा, उच्छं खलताप्रिया, दुराचारिणी, निर्लजा एव कटुवादिनी है, तो जानना चाहिये कि किसी कुत्सित साहित्य के प्रपंच में पड़ने का ही यह फल है। ये ही वाते पुरुष के गुणदोप के विपय में भी कही जा सकती है। ससार-सुखशांति गाडी के दो पहिये हैं, एक पुरुप दूसरी स्त्री । यदि ये दोनों पहिये ठीक-ठीक काम देते हैं, तो यह सुखशांति की गाडी यथारीति चलती रहती है, और मनुष्यजीवन आनंदमय बनता रहता है । अन्यथा जिस परिमाण में पहियाओं में दोष आ जाता है, उसी परिमाण में सुखशांति गाडी की गति विगड़ती और अनेक अवस्थाओं मे नष्टभ्रष्ट हो जाती है। जब तक पुरुप को स्त्री के हृदय और उसके मनोभावो का यथातथ्थ ज्ञान नहीं होता और जब तक स्त्री पुरुष के स्वभाव से पूर्णतया परिचित नहीं होती, उस समय तक ससार यात्रा का यथोचित निर्वाह नहीं होता। जब तक दोनो दोनो के गुण दोप नहीं जानते, प्रवृत्ति को नहीं पहचानते, जव तक वे नहीं समझ सकते कि ससार सुमनमय ही नहीं है, उसमें कॉटे भी हैं, तब तक न तो वे अपने जीवन को सफल बना सकते हैं, और न आये दिन की आपदाओं से बच सकते हैं। दुनिया बहुरंगी है, जो उसके सव रंगों को पहचानता है, उसीके मुख की लाली रह सकती है, वह चाहे स्त्री हो चाहे पुरुप | जहाँ सती साध्वी कुलललनाएँ हैं, वहीं प्रवचनामयी वारवधूटियाँ भी हैं। जहाँ कोमलस्वभावा सरल वालिकाएँ हैं, वहीं कटुवादिनी गर्विणी मानवती नायिकाएँ भी हैं। जहाँ पति की परछाहीं से भीत होनेवाली मुग्धाएँ हैं, वहीं अनेक कलाकुशला प्रौढ़ाएँ भी हैं। कहों म्वकीया है, कही परकीया, कहीं सामान्या। जब तक कोई ससारी पुरुप इन सब का यथार्थ ज्ञान न रग्वेगा, तब तक उसकी ससारयात्रा
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