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. . हूँ, तो उसको बावन तोले पाच रत्ती ठीक पाता हूँ। ऊपर जितने लक्षण कविता के बतला आया हूँ, वे सब उसमे पाये जाते है, इस विषय में उसकी रचनाएँ संसार की किसी समुन्नत भापा का सामना कर सकती हैं। इस विपय के प्रसिद्ध संस्कृत अथवा हिंदी के कवियो ने जब जिस भाव का चित्रण किया है, उस समय उस भाव का उत्तम-से-उत्तम चित्र खींचकर मामने रख दिया है । आप चाहे जिस चित्र को उठा लीजिये, और कला के विचार से उस पर दृष्टि डालिये तो आपको आश्चर्यचकित हो जाना पड़ेगा । भावुकता कविता की रीढ़ है। नायिका भेद की कवि- ताओ में वह कूट-कूट कर भरी है। यदि मनोभावो का स्वाभाविक विकाश देखना चाहें, तो उसमे देखे । इस विपय के कवि का रसपूर्ण हृदयांवुधि जव उत्ताल तरंग माला संकुल होता है, उस समय कैसे-कैसे भाव-मौक्तिक सहृदयो पर उत्सर्ग कर जाता है, इसका अनुभव उसी को होता है, जो कला की दृष्टि से उन मोतियो की परख करता है । जिनकी दृष्टि ऐसी नहीं, वे उन्हें भले ही पोत या और कुछ समझ लेवे आजकल एक विचार-धारा बड़े वेग से बह रही है, पहले वह कितनी ही अंतर्मुखी क्यो न रही हो, परंतु आज वह वहिर्मुखी है । जिनको कवि-कर्म का दावा है, जो अपना विजयिनी कविता को जन साधारण के श्रद्धा पुष्प माल्य द्वारा अर्चित देखना चाहते हैं, वे प्रायः कहा करते हैं, कविता हृदय की वस्तु है । भावोद्रेक होने पर जो कविता स्रोत हृदय सरोवर से स्वभावतया फूट निकलता है, वास्तविक कविता के गुण उसी में होते हैं। जिस सरस हृदय का उच्छलित प्रवाह नैसर्गिक होता है, उसी मे वह कल-कल ध्वनि मिलती है, उसी मे वह उन्मादिनी-गति पाई जाती है, जो सहृदय जन के कर्ण कुहर में प्रवेश करके अजस्र आनंद सुधा वर्षण करती रहती है। इस प्रकार की कविता न तो किसी अलंकार की भूखी रहती है, न किसी विलक्षण शब्द-विन्यास की, वह अपने रंग में आप ही मम्त रहती है, और अपनी इसी अलौकिक मस्ती - "