सौभाग्य मे देखी जाती है। हम कह सकते हैं कि न केवल इस वर्तमान समय में ही उपाध्यायजी हिदी-साहित्य-क्षेत्र मे सर्वोच्च कवि-कीर्ति की कल कमनीय-कांति-कौमुदी के कलित कलाधर हो रहे हैं, वरन् इसी प्रकार चिरकाल तक बने रहेंगे।
हिंदी-साहित्य के इतिहास से यह सर्वथा स्पष्ट है कि हिंदी-साहित्य के अलकृत या कला-काल मे रीति-ग्रंथो की रचना करने की एक परिपाटी चल पड़ी थी, जो लगभग दो सौ वर्ष तक बड़ी प्रबलता और प्रचुरता के साथ साहित्यागार को रुचिर रीति-ग्रथों से सुसन्नित करती रही। इसी परिपाटी या प्रणाली के प्रावल्य-प्रभाव से प्रेरित होकर आचार्य महाकवि केशव, मतिराम, भूपण, देव, दास, पद्माकर आदि कविवरो ने अलंकार एवं रसादि-संबंधी कतिपय सुंदर ग्रंथ रचे थे। इस परंपरा को १८०० ई० के लगभग से शिथिलता प्राप्त हो चली और धीरे-धीरे वर्तमान समय में इसका एक प्रकार से लोप-सा हो गया। इधर की ओर कुछ महानुभावो ने देश-काल के अनुसार रीति-ग्रंथों की रचना-शैली मे कुछ रूपांतर उपस्थित करने का सफल प्रयास किया और दोहो आदि छंदों मे न देकर गद्य में ही अलंकारादि को परिभापाएँ देने तथा उनकी मार्मिक विवेचना करने की नवपद्धति चलााई। परंतु प्रायः विद्वानो ने अलंकार-विवेचन पर ही विशेष ध्यान दिया था, रस-सिद्धान्त के विवेचन की ओर वे अग्रसर न हुए थे। सच पूछिये तो रस, नायक-नायिका-भेद तथा नख-शिख-वर्णन वाली परंपरा की इस नव युग मे एक प्रकार से इतिश्री ही हो गई थी। परंतु श्री० उपाध्यायजी ने इस परंपरा को भी ठीक उसी प्रकार नये जीवन का दान दिया, जिस प्रकार आपने अपने परम प्रशस्त “प्रिय-प्रवास” के द्वारा कृष्ण-काव्य की परंपरा को विशेपत्व प्रदान किया है। कृपण-काव्य की रचना-परंपरा मे ब्रजभापा का ही प्राधान्य रहा है क्योंकि वह उस ब्रज की मंजु-मधुर भापा है जहाँ व्रज-विपिन-बिहारी ने अपनी अति प्रियशीला ललित लीला की थी। उपाध्यायजी ने उसमे