११६ नायिका भेद के मूल मे जो सत्य है, वास्तविक बात यह है कि वह सार्वभौम एवं सर्वकालिक है। उसके भीतर वे स्वाभाविक मानवी भाव सदा मौजूद रहते हैं, जो व्यापक और सर्वदेशी हैं, इसलिये उसकी अभिव्यक्ति विश्व भर में अज्ञात रूप से यथाकाल और यथावसर होती रहती है । वह मंगलमयी प्रकृति का वह गुप्त विधान है कि जिससे संसार संस्कृति सूत्र स्वतः परिचालित होता रहता है। मेरा विचार है, नाट्य- शास्त्रकार ने उसको वैज्ञानिक रीति से विधिवद्ध करके साहित्य की शोभा ही नही बढ़ाई है, लोकहित साधन का भी आयोजन किया है। साहित्य और कला कुछ लोग साहित्य को कला नहीं मानते किंतु कुछ लोग उसको भी कला कहते है। महाराज भर्तृहरी का यह श्लोक कि “साहित्यसगीतकला- विहीनः साक्षात् पशुः पुच्छविपाणहीनः" यह बतलाता है, कि साहित्य कला नहीं है, क्योकि 'कला' का प्रयोग जिस प्रकार संगीत के साथ है, साहित्य के साथ नहीं, परंतु इसका उत्तर यह कहकर दिया जाता है, कि 'सङ्गीतमपि साहित्यम्' । चतुर्दश विद्या मे साहित्य को जिस प्रकार स्थान नहीं मिला है, उसी प्रकार चौंसठ कला मे भी नहीं, हॉ, समस्यापूर्ति को कला माना गया है। यदि समस्यापूर्ति कला है तो कविता भी उपलक्षण से कला मानी जा सकती है, क्योकि उसके विषय मे यह स्पष्ट कहीं नहीं लिखा गया है कि वह कला नहीं है। दूसरी बात यह कि आजक्ल के विद्वानो की यह स्पष्ट सम्मति है कि कविता ललितकला है-बंगाल के प्रसिद्ध विद्वान् द्विजेद्रलाल राय लिखते है- "नियम-बद्ध होने के कारण काव्य और नाटक सुकुमार कला कहलाते हैं।"-कालिदास और भवभूति पृ० ८२ । पाश्चात्य विद्वान उसको खुल्लम खुल्ला कला कहते हैं। चेम्बर्स कहता है- "Poetry is the art of expressing in melodious words
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