“अपूर्वो भाति भारत्याः काव्यामृतफले रसः”
“चर्वणे सर्वसामान्यं स्वादविल्केवल कवि.”।
कहना न होगा कि श्री० उपाध्यायजी में दोनों गुण सुंदर रूपों में विद्यमान हैं। आप उच्चकोटि के “कवि-सम्राट” भी है और प्रशस्त काव्याचार्य भी हैं, इसीलिये आप काव्य-कला के सभी प्रकार मान्य, मर्मज्ञ और काव्य-कौशल-तत्वज्ञ हैं। हो सकता है कि कुछ लोग हमारे इस कथन पर किसी कारण कुछ किंतु-परंतु करते हुए नाक-भौं सिकोड़ें, किंतु न्याय के लिये हम उसकी सर्वथा उपक्षा ही करते हैं। “सत्ये नास्ति भय क्वचित्” पर विश्वास रखकर हम स्पष्टवादिता तथा सत्य- प्रियता को ही महत्त्व देते हुए उपाध्यायजी को वर्तमान समय का एक मात्र महाकवि तथा प्रशस्त अचार्य कहने में रचक भी नहीं हिचकिचाते।
यदि सत्य और न्याय को हृदय में रखकर देखा और कहा जाय तो उपाध्यायजी का स्थान इस समय हिंदी-साहित्य के क्षेत्र में सर्वोच्च सिद्ध होता है। भाषा के समस्त प्रधान और साहित्यिक रूपों पर――चाहे वह खड़ी बोली हो, चाहे ठेठ हिंदी या कथित (So called) हिंदुस्तानी (चलती हुई बामुहावरा साधारण हिंदी), चाहे ब्रजभाषा हो और चाहे अवधी, सभो पर आपको असाधारण और पूरा अधिकार प्राप्त है। उनके सब रूपों की समस्त उत्कृष्ट और साधारण शैलियो के सुप्रयोग मे भी आप सर्वथा सफल और प्रशस्तरूपेण पटु सिद्ध हुए है। आपके ‘प्रिय प्रवास, चोखे चौपदे, बोलचाल, ठेठ हिंदी का ठाठ, कबीर- वचनावली की भूमिका, सभापति के रूप में दिये गये भापण’ आदि रचनाओ से आपकी खड़ी बोली के विविध रूपो और ढंगों में प्रकामा. भिराम पटुता तो हिंदी-ससार को प्रकट हो ही चुकी है, अब इस “रस- कलस" के द्वारा आप को ब्रजभापा-मर्मज्ञता का भी यथेष्ट परिचय प्राप्त हो जायगा। वास्तव में ऐसी बहुमुखी प्रतिभा तथा पांडित्य-परिपुष्ट काव्य- कला-कुशलता के साथ भापा-भाडार-भाडारिता विरले ही महापुरुषों के