११२ . , मात्र को । सभव है सस्कृत में नायिका भेद के और ग्रथ भी हो, कितु वे मेरे देखने में नहीं आये परतु अधिकाश-काव्य ग्रथो में ऐसे वाक्य यत्र-तत्र मिल जाते हैं, जिससे पाया जाता है कि उनके रचयिता नायिका भेद से परिचित अवश्य है और उसके प्रेमी भी है, चाहे उनकी स्वतत्र रचना नायिका भेद पर भले ही न हो । गीतगोविद इसका प्रमाण है, जिसके पाँचवे सर्ग मे अभिसारिका, छठे मे वासकसज्जा, मातवे मे विप्रलब्धा, आठवें मे खडिता, नवे मे कलहातरिता और दसवें में मानिनी का वर्णन है। ऐसे और प्रथ भी बतलाये जा सकते हैं। कहने का प्रयोजन यह कि सस्कृत साहित्य के बड़े-बड़े आचार्यों और विद्वानों द्वारा भी नायिका विभेद उपेक्षित नहीं हुआ और न उसकी रचना शंका की दृष्टि से देखी गई। यदि उसमे कुछ तत्व और आकर्पण न होता- उसमे कुछ उपयोगिता न होती तो ऐसा कदापि न होता । समार के साहित्य को उठाकर देखिये, उसमें भी यह विपय भरा पडा है। सस्कृत के विद्वानो के समान उन्होंने इस विषय का कोई विभाग नहीं बनाया और न उनको नियमबद्ध कर उन पर विवेचन किया, फिर भी उनकी रचनाओ मे वे विचार और भाव पाये जाते हैं, जो कि हमारे नायिका विभेद मे मिलते हैं। समार के मनुष्य मात्र के भाव दाम्पत्य-धर्म के विपय मे अधिकाश एक है, क्योंकि प्रकृति प्रायः मिलती है । इसलिये विचारो का एक होना स्वाभाविक है। मनुष्य मात्र का हृदय एक उपादान से बना है, इसलिये उनकी म्वाभाविक चिताए समान होती हैं । सुख-दुख के अनुभव का भाव समार भर का एक ढग में ढला देखा जायगा, यदि उसमे कृत्रिमता आकर शामिल न हो गई हो । मैं अपने कथन का प्रमाण दूंगा । नायिका किसे कहते हैं, जो लोक सुदरी हो, जिसका रूप देखकर ऑखे अनुभव करें कि सौंदर्य म्वय रूप धारण करके मामने आ गया । सस्कृत-हिंदी-साहित्य में नायिकायो के रूप का वर्णन आप लोगो ने 1
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