1 मे नित्य विलव ही होता रहेगा, शाति रहेगी ही नहीं, फिर सुव्यवस्था कैसे होगी ? यदि सुव्यवस्था न होगी तो समस्त कार्यकलाप विशृङ्खल हो जावेंगे, जिसका परिणाम समाज और देश का विनाश होगा। इसी लिये देशकालज्ञ विबुधों ने ऐसे नियम बना रखे हैं, या ऐसे नियम यथाकाल बनाते रहते हैं, जिनके पालन से सर्व देश सुरक्षित रहता है और समाज अथवा मानव समूह का उन्नति-स्रोत बंद नहा होता । नियम बनाना उतना कठिन नहा, जितना उसका पालन करना । भिन्न- भिन्न रुचि और नाना प्रकार की प्रकृति होने के कारण जव तक नियमो मे सामञ्जस्य नहीं होता, तब तक उनका यथारीति न तो पालन होता है, न समाज सुव्यवस्था सूत्र मे बध सकता है। सामञ्जस्य स्थापन के लिये रुचि और प्रकृति का यथार्थ ज्ञान आवश्यक है । समाज दा भागो में विभक्त है, स्त्री और पुरुप उसके विभाग हैं । स्त्री और पुरुपो के स्वभाव में स्वाभाविक वहुत बडी वडी भिन्नताएँ हैं। इसलिये समाज की सुव्यवस्था के लिये एक को दूसरे को रुचि और प्रकृति का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है। इसी प्रकार पुरुष का पुरुप के और स्त्री का स्त्री के भावो एव विचारा से अभिन्न होना वाछनीय है। जहाँ प्रकृति नहीं मिलती, स्वभाव का पूरा परिज्ञान नहीं होता, वहाँ पद-पद पर पतन होता है, और सफलता दूर भागती है । किंतु जहॉ मनोविज्ञान पर दृष्टि रखकर कार्य सचालन किया जाता है, वहाँ स्खलन कदाचित् ही होता है, क्योकि रुचि देखकर और स्वभाव पहचानकर कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण होने ने असफलता प्राय सामने आती ही नहीं । इस उद्देश्य की सिद्धि के लिये अनेक साधनो की सृष्टि हुई है। सैकडो अथ लिखे गये है, बहुत-सी कविताये रची गई हैं, और नाना प्रकार की शिक्षाओ का आयोजन नाना सूत्रों से किया गया है। नाट्य-शास्त्र की रचना भी इसी उद्देश्य से हुई है, क्योकि नाटको के द्वारा मानसिक भावो का प्रत्यक्ष इशन कराकर जितना मानवी प्रकृति एव रुचि का परिज्ञान कराया जा . .
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