१०७ . दृष्टि डाली गई है । यह कार्य बड़े त्याग और परिश्रम से किया गया और उसमे इतनी सफलता प्राप्त की गई कि उसको देख कर आज भी पाश्चात्य विद्वान् चकित होते है । इस महान् उद्योग में न तो स्वार्थ को गन्ध है. न वासनाओ की वास । उसमें समाज और देश की वरन् लोक का हितकामना ही निहित है, उसके द्वारा अपनी विद्या एवं कला की भी चरमोन्नति की गई है। रस-सबधी गहन विचार भी ऐसा ही कार्य है। श्रृंगार रस सब रसो में प्रधानता रखता है, इसलिये उसके प्रत्येक अग पर साहित्य ग्रंथो मे बड़ा सूक्ष्म विवेचन है। उसका नायिका विभेद- विभाग कला की दृष्टि से अपूर्व तो है ही, उपयोगिता भी उसमे कम नहीं है । साहित्य के जितने उद्देश मैं ऊपर उद्धृत कर आया हूँ वे सब उसमे पाये जाते हैं । उसके कुछ अश असामयिक समझे जा सकते हैं, परंतु वास्तव मे वे असामयिक है या नहीं, इसपर विचार करना होगा और विचार करते समय उस काल पर भा दृष्टि रखना होगा, जिस समय उनकी रचना हुई। इतना ही नहीं, उनको सामने रखकर वर्तमान प्रगति पर भी दृष्टि डालनी होगी और मिलान करके देखना होगा, कि वाछनीय कौन है । ऐसा मैं आगे चलकर करूंगा; इस समय मै यह विचारुगा कि संस्कृत-साहित्य मे नायिका-विभेद की कल्पना कब हुई संस्कृत-साहित्यकारो ने उसको किस रूप मे ग्रहण किया और फिर वह कैसे पल्लवित हुआ संस्कृत-साहित्य और नायिका-भेद समाज-नियमन सुगम नहीं । मनोवृत्तियों बड़ी प्रवल होती हैं, उनमे अतईष्टि नहीं होती, अथवा वे आवरित होती है । अपना स्वार्थ उनको जितना प्यारा होता है, परमार्थ नहीं। उनकी उच्छ हलता अन्यो की परतंत्रता अथवा स्वतंत्रता पर दृष्टिपात नहीं करती। उनकी कामुकता इतनी अधी होती है कि दूसरों की मानमर्यादा को देखती ही नहीं । फिर समाज कैसे चले ? यदि सव मनमानी ही करता रहे, तो समाज ?
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