१०४ वर्णन और विश्लेषण हो। कवींद्र रवींद्र की उक्ति का मर्म, व हिदी- शब्दसागर के कथन का निचोड़ यही है । जव मैं सस्कृत भाषा के साहित्य प्रथों को उठाकर देखता हूँ, महा- भारत से महान और विशालकाय एव वाल्मीकि रामायण से मधुर और सरस ग्रथो को अवलोकन करता है, कविपुगव कालिदासादि के काव्य- ग्रथा, महा विद्वान् मम्मट आदि के रस अलकारादि संबंधी रीति ग्रथों, पर दृष्टिपात करता हूँ, पुराणों और आख्यान पुस्तकों को पढ़ता है, तो सब मे शृगार रम की धारा प्रखर वेग से वहती मिलती है और सवों में ही वह ओत-प्रोत पाया जाता है। कारण इसका यह है कि सासारिक जोवन शृगार सर्वस्व है। सांसारिकता का आधार गार्हस्थ्य जीवन है, गार्हस्थ्य जीवन पुत्र-कलत्रावलवित है, पुत्र-कलत्र मूर्तिमत शृगार हैं, अतएव सासारिकता का सवल शृगार है। विश्व के जितने आहार- विहार उपादेय हैं, जितने हास-विलास वाछनीय हैं, जितने केलिकलाप कमनीय है, जितनी लीलाएँ लोक-प्रिय एव ललित हैं, जितने आचार- विचार और व्यवहार प्रशसनीय हैं, उनमें से अधिकांश शृगार रस के अतर्गत हैं, इसीलिये उक्त समस्त ग्रथों में उसका ही पूर्ण प्रसार देखा जाता है। कवींद्र रवींद्रनाथ एक स्थान पर कवि और महाकवि पर विचार करते हुए अपने प्राचीन साहित्य नामक ग्रंथ (पृ० १-२) मे यह लिखते हैं- "काव्य को दो भागों मे वॉटा जा सकता है, किसी काव्य मे अकेले कवि की बाते होती हैं और किसी काव्य मे वृहत् सम्प्रदाय का इतिवृत्त । अकेले कवि की बात कहने का यह भाव नहीं कि वह अन्य लोगो के लिये जेय नही । यदि ऐसा होता, तो उसे पागलपन कहा जाता। उसका यह अर्थ है कि कवि मे ऐसी क्षमता है कि जिसके भीतर से उसके सुख- दुख, उसकी कल्पना और उसके जीवन की अभिजता के सहारे,
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