मका । कारण इसका यह है कि वत्सलता एवं भक्त रति का ही एक र हे 1 मा का संतान विपयिणो रति वत्मलता है और भक्तो की ईश्वर विपरिणी रति भक्ति । इसलिये इनमे परम्पर ऐसी भिन्नता नहीं कि इनको अलग एक रस नाना जावे । नात होता है. प्राचीन बडे-बड़े याचारों ने भा यही विचार कर वत्सलता और भक्ति को अलग रन नहा माना । ति को व्यापकता कितनी है, मैं भला-भांति इनका प्रति- चादन कर चुका ह.मी अवस्था मे भक्ति का अथवा वान्सल्य ग्ल का उसमे अतर्भाव होना अलगत नहीं । जन साधारण अथवा मानव की प्रीति हो यथा काल व्यापक होकर ईश्वरीय प्रेम अथवा भक्ति में परिणत होती है. यह भा एक अनुभूत सिद्धांत है । इससे भो भक्ति और गति को एकता हो निश्चित होतो है. मात्रा ने भले ही कुछ अतर हो। स मिलात पर उपनीत होने पर उस विवाद का निराकरण हो जाता है. जो वात्मन्य पार भक्ति को अलग ग्म मानने मे उत्पन्न होता है। वे शृगार के ही अंगभूत है तो फिर उनमे परस्पर प्रधान बार प्रधान होने का तर्क कैसा ? एक प्रकार से बार इस विषय को देखिये । देव विपरिणी गति को प्राचार्यों ने भाव माना है. इसलिये श्वर विषयक गति भी भाव है, पुत्र-प्रेम को भी भाव ही कहा गया है- काव्यप्रकाराकार कहते है- 'रतिवादिविषया व्यभिचारी तथान्जित.! भावः प्रोग.. आदिगन्दा मुनिगुपपुत्रादिविषया ॥" काव्यप्रकाश के टीकाकार लिग्यते हैं-"तभावादिभिरपुष्टयान न रसद किंतु भावत्यमेवेति भावः ।" अनुभावादि से जो अपुष्ट होते है उन का रमत्त्व नों प्रार होता. वे भाग ही रहते हैं। ऐसी दशा में भाव मे ग्स का स्थान ऊचा हुआ यदि देव एवं पुत्र गति को गणना भाव ही में है. जैसा कि ऊपर के वाक्यों में मिट्ट होता है. तो भी शृगार रन्न र चालल्य भाव पार भनि (देव पनि ) पर प्रधानता ही मिलती है। कि जब .. 6
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