श्रीमान् पण्डित रामचन्द्र शुन्ना ने अपने 'काव्य में रहस्यवाद' नामक ग्रंथ के पृष्ट ६७ में जो लिखा है. वह नीचे उद्धृत किया जाता है; उससे भी मेरे कथन की पुष्टि होती है। "परिडतजी ( नारायण पाण्डत) ने इस बात पर ध्यान न दिया कि रस के भेद प्रस्तुत वस्तु या भाव के विचार से किये गये है. अप्रस्तुत या साधन के विचार से नहीं। शृगार रस की किसी उक्ति में उनके शब्द- विन्याल आदि में जो विचित्रता होगी, वह वर्णनप्रणाली की विचित्रता होगी, प्रस्तुत वस्तु या भाव की नहीं । अद्भुत रस के लिये स्वतः पालवन विचित्र अथवा आश्रय्यजनक होना चाहिये । शृंगार का वर्णन कौतुकी कवि लोग कभी कभी वीर रस की सामनी अलकार रूप में रख किया करते है। क्या ऐसे स्थानो पर शृगार रस न मानकर वीर रस मानना चाहिये ? करुण रस के विषय में उत्तरगमचरितकार ने जो लिखा है, उसके प्रतिपादन मे उन्होंने कोई युक्ति नहीं दी। वे केवल इतना ही कहते है। 'क करण रस ही निामत्त भेद से भिन्न होकर पृथक-पृथक परिणामां को ग्रहण करता है, जल के आवत्ते, बुबुद, नरंगादि जितने विकार है. वे समम्त सलिल ही होते हैं।' करण रस का स्थायी भाव शोक है, शोक उनी के विपय मे होता है. जिससे रनि प्रधान प्रीति है । प्रीति के अभाव में शोक हृदय में न्यान पा नहीं सकता । जब हम किमी प्राणी को कष्ट मे देखते हैं, अथवा उम्मको विपन्न पाते है, तो हमारे हृदय में शोक का प्राविभाव इसलिये होता है, कि उसमें हमारी ममता होनी है। ममता ही प्रेम, प्रीति प्रथवा स्नर की जननी है । यही प्रीति जब दवणशीला होती है. तर क्या कहलाती है; करणा अधिकतर दयावलावनी होती है. इसलिये यह मानना पंडगा कि प्रीति के अभाव मे करणा का जन्म ही न होगा. फिर उसका विकार प्रीति कैसे होगी? यदि कटा जावेनिशाणी होने के
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