६२ आकाक्षित मरण का भी वणन कर देना चाहिये। यदि फिर शीघ्र ही पुनर्जीवित होना हो तो मरण का भी वर्णन कर देते हैं"। विशेष दशा में ही सही, किंतु यदि मरण का वर्णन किया जाता है, तो शृगार रस मे उसका वर्णन हो गया, फिर उसका त्याग कहाँ हुआ ? चित्त से आका क्षित मरण भी मरण दशा का वर्णन ही है, चाहे उसमें अधिक रस-विच्छेद भले ही न होता हो । भारतेंदुजी के निम्न- लिखित पद्य मे इसी भाव को व्यजना है, परंतु है मरण का ही वर्णन- एहो प्रानप्यारे बिन दरस तिहारे भये, मुये हूँ पै आँखे ए खुली ही रह जायँगी ।' कुछ लोगो की यह सम्मत्ति है कि यदि यह बात सत्य है कि वियोग- जनित पीडाधिक्य मरण का कारण भी होता है, तो उसका वर्णन क्यों न किया जावे। वियोग की वास्तविक अतिम दशा पर दृष्टि रखकर ही आचार्यों ने मरण को काम की दश दशा में स्थान दिया है, फिर उसकी उपेक्षा क्यों ? कविवर विहारीलाल ऐसे ही विचारवालो मे ज्ञात होते हैं। उन्होने निम्नलिखित पद्य मे मरण का वर्णन किया है- कहा कहीं वाकी दसा हरि प्रानन के ईस । विरह ज्वाल जरिबो लखे मरिवो भयो असीस ।। फारसी के कवि और उन्हीं की देखा-देखी उर्दू के कवि मरण दशा का वर्णन बडे जोश-खरोश के साथ करते हैं। मरण समय की समस्त वेदनाओ, उस काल की आदर्शनीय यत्रणाओ, पीड़ाओ और वोभत्सकाण्डो को मजे ले लेकर कहते हैं। कत्र मे को आरजूश्रो और तमन्नायो को दिल ग्बोलकर सामने रखते हैं। कतल के वक्त के तमाम नजारो को इस तरह कलमबद करते हैं कि उस समय का दृश्य ऑखो के सामने आ जाता है, फिर भी अमगल कामना उनके हृदय में घर नही करती-इसको विचार-विभिन्नता छोड़ और क्या कहें। कुछ उनकी तबीयतदारी देखते चलिये-
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