६१ - . कहते हैं । में भी इस सिद्धांत को मानता हूँ, परंतु कुछ लोगों की सम्मनि है कि सब संचारी भाव श्रृंगार रस में भी नहीं आते. साहित्यदर्पणकार लिखत है- त्यवानवमरणालस्यजुगुप्सा व्यभिचारिणः । उग्रता. मरण, आलस्य और जुगुप्सा को छोड़कर सब व्यभिचारी अथवा संचारी भाव इसमें आते हैं महामुनि भरत लिखते हैं- 'व्यभिचारिणम्पासालयोग्रयजुगुप्सा बर्जम् । व्यभिचारियो मे त्राम, आलस्य, उग्रता, और जुगुप्सा शृंगार में नहीं पाते। साहित्यदर्पणकार ने त्रास नहीं रखा, उसके स्थान में मरण रखा है। शेप त्यज्य संचारी भावों के विषय में दोनो आचार्यों की एक सम्मति है। में देखना चाहता है कि जिन संचारी भावो को त्यज्य बतलाया गया है. साहित्यकार उनका प्रयोग शृंगार रस में करते हैं या नहीं। पहले तो यही देखिये कि जिस मरण संचारी को सर्वथा अमंगलमूलक माना है. जिसके विषय में साहित्यदर्पणकार यह लिखते है- 'रसविच्छेदहेतुत्वान्मरए नेव वर्ण्यते । 'रम का विन्छेटक होने के कारण शृंगार रस का वर्णन नहीं किया जाता. वही मरण काम दशा की दश दशाओं में से एक है, क्योंकि "अंतिम 'अवस्था वही है। फिर उमका वर्णन शृंगार में क्यों न होगा। यद्यपि वे लिखते हैं- जातमा तु तवाच्य चेतता काक्षितं तया । वर्णनेऽपि यदि प्रत्युजीवन स्याददूरत ॥ "मग्ण तुल्य दशा का वर्णन कर देना चाहिये. और चिन में -
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