मैंने स्थान विशेष मे काम और रति को शृगार का जनक और जननी भी लिखा है । कारण, भरत मुनि का यह वाक्य है- 'तत्र शृ गारो' नाम रतिस्थायिभावप्रभव उज्ज्वलवेषात्मक. । 'शृगार' रति स्थायिभाव से उत्पन्न हुआ है, और उज्ज्वल वेषात्मक है। जव शृगार रति से उत्पन्न है, तो वह उसकी जननी हुई, और उसका पति कामदेव उसका जनक है-यह स्पष्ट है। किंतु इस स्थान- पर शृगार से आद्य अथवा मूल शृगार से नहीं, वरन् उस शृगार से मतलब है, जिसको दम्पति का सम्मिलन अथवा स्त्री-पुरुप का सांसारिक सृजन सवधी कार्य कह सकते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं- जग पि मातु महेस भवानी । तेहि शृगार न कहीं बखानी ॥ यह शृगार भी इतना व्यापक है कि प्राणियो क्या, पेड़ो और लता वेलियो मे भी उसकी उपस्थिति पाई जाती है। जनक ही जननी में पुत्र-रूप से उत्पन्न होता है, यह सभी जानता है, 'आत्मा वै जायते पुत्र' । महाभारतकार भी यही लिखते हैं- आत्मात्मनैव जनित. पुत्र इत्युच्यते बुधैः । तस्माद्भायर्या नर पश्येन्मातृवत्पुत्रमातरम् ॥ बुद्धिमानो का कथन है कि प्रात्मा ही पुत्र रूप मे उत्पन्न होती है, इसलिये नर को स्त्री को मातृ-रूप मे देखना चाहिये, क्योंकि पुत्र की माता वही है। ऐसी अवस्था में मूल शृगार से इस शृगार में विशेष अतर नहीं पाया जाता, फिर भी कुछ अतर अवश्य है । इसी अंतर पर दृष्टि रखकर काम को उसका जनक और रति को उसकी जननी माना जाता है । अस्तु । हिंदी शब्दसागरकार कहते हैं कि इसी एक रस में सब सचारी- भाव विभावो एव अनुभावो सहित आते हैं, इसीलिये इसे रसराज
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