. ददौ रसात् पकजरेणुगन्धि गजाय गण्डूपजल करेणुः । अझैपभुक्तेन बिसेन जाया संभावयामास स्थागनामा ॥ पर्याप्तपुष्पस्तवफस्तनाभ्य. स्फूरत् प्रवालोष्ठमनाहराभ्य.। लतावधूभ्यस्तरवोऽयवापुर्विनम्रशाखाभुजवधनानि II भ्रमरगण अपनी-अपनी प्रिया का अनुगामी बनकर एक पुष्परूप पात्र में मधुपान करने लगा, कृष्णसार मृगो ने अपने-अपने सीगो से मृगीगण के गात्र को खुजलाया, अतएव स्पर्श सुख से विमोहित होकर उन्होंने अपनी आँखें बंद कर लो । करिणीगण ने पद्म-पराग से सुरभित मगेवर सलिल को करो के द्वारा कुंजर समूह को पिलाया और चकवा ने कमल नाल का एक टुकड़ा लेकर उसमें से प्राधा स्वयं खाया और आधा अपनी प्रियतमा को खिलाया। इतना ही नहीं, प्रभूत-पुष्प-स्तवक- स्तन और प्रवालोपम अधर-पल्लव से सुशोभित लता-वधूटियो ने भी अपनी आनत-शाखा बाहु-द्वारा पादप समूह को प्रालिंगन करना प्रारंभ कर दिया। कविकुलतिलक गोम्वामी तुलसीदासजी ने इस विषय का वर्णन जिम प्रकार किया है, वह भी दर्शनीय है- सब के हृदय मदन अभिलाखा | लता निहारि नवहि तर शाखा । नदी उमगि अंबुधि कहे धाई । सगम करहि तलाव तलाई । जैह अस दता जदन है बरनी । को कहि सकहि सचेतन करनी। पमु पन्छी नम जल थल चारी। भये काम यस समय विसारी। देव दनुज नर किनर याना । प्रेत पिमाच भूत चैताला। इनकी दसा न कहेउँ खानी । मदा काम के चेरे जानी। मैं मममता है, अब तक जो शृंगार रस की व्यापकता के विषय में लिखा गया, वह पर्याप्त है। एक अंगरेज विद्वान की सम्मति और सुन लीजिए- It is i nder the awakening of reproductive life that the
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