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८४ , नाना विभेद, हाव-भाव कटाक्ष के महाप्रयोग, हास, विलास के क्रिया कलाप, रूप माधुरी के विविध वर्णन, प्रकृति विभूतियो के मनोहर चित्रण कवि-हृदय के सरस उद्गार, रसिक जनो के रस प्रसूत सम्बल, सौंदर्य प्रेम प्रकरण ही के विविध सरकरण हैं। मानव किस प्रकार इनके द्वारा अपनी सकामता को चरितार्थ करता है, कैसे इनमें अनुरक्त रहकर अपने जीवन को आनदमय बनाता है, यह अविदित नहीं, प्रत्येक सहृदय इसे जानता है। वधिक की वीणा मे कौन-सी वशीकरण विभूति होती है कि उसको श्रवण कर मृग इतना तन्मय हो जाता है कि उसके वाण पर आत्मो- त्सर्ग करने में भी सकुचित नहीं होता ' कृत्रिम करिणी को भी देखकर गजराज पर कौन सा जादू हो जाता है कि वह गर्त मे ही पतित नहीं होता, उस पराधीनता के वधन मे भी वध जाता है, जो उसको आजन्म जीवन के स्वतत्रता सुख से वंचित कर देता है ? घोडियों में कौन- सी आकर्षिणी शक्ति है, जिनको अवलोकन करते ही घोड़े आनद-विह्वल होकर उछलने-कूदने ही नहीं लगते, अपने उच्चरव से दिशाओ को भी ध्वनित करने लगते हैं ? मथर गति, पीवर ग्रीव, विशाल काय बैलों मे कौन-सी मोहनी रहती है कि उनको घूमते देख गाएँ आपे में नहीं रहती और पास पहुंच कर परस्पर लेहन करने मे ही आनद लाभ करती हैं ? वह कौन-सी प्रेरणा है कि अपने बच्चों में पशु मात्र का सहज प्यार होता है? वह कौन-सा भाव है जिसके वशवर्ती होकर पशुओ के जोडे आपम में एक दूसरे की ओर खिचते, मुँह से मुँह मिलाते, उछलते-कूदते और तरह-तरह की क्रीडाओ मे रत रहते हैं ? इन मव वातो का एक ही उत्तर है, वह यह कि ये सब भगवान् कुसुमायुध की विचित्र लीलाए हैं । प्रात काल ऊपा को अरुण राग रंजित और कात रविकर आपीड मे सुसज्जित अवलोकन कर विहगवृद जो अलौकिक-गान आरभ करता है, जैसी कलकंठता दिखलाता है, जैसे मधुर म्वरो से दिशाओं को पूरित