श्रृंगार रस की व्यापकता ससार में जो पवित्र, उत्तम, उज्ज्वल और दर्शनीय है, उसमें शृंगार स का विकास है, इस कथन से ही शृंगार रस कितना व्यापक है. पह स्पष्ट हो जाता है। परंतु सूत्र-रूप मे कही गई इस विषय की व्याख्या अावश्यक है, जिसमे वह भलाभांति हृदयंगम हो जावे। प्राणियो मे मनुष्य सर्वप्रधान है । जब उसकी ओर दृष्टि जाती है तब शृगार रस की व्यापकता अन्य प्राणियों की अपेक्षा उससे अधिक पाई जाती है। किसी-किसी प्राणी मे शृंगार रस का कोई अंश बहुत-ही प्रबल देखा जाता है, परंतु उसका सर्वांश अथवा अधिकांश जितना मानव- जाति में मिलता है, अन्यो मे नहीं। दर्शनीयता जितनी सौंदर्य मे मिलती है, अन्य गुणो मे नहीं । जितना आकर्पण और हृदयग्राहिता रूप मे होती है. जितना मोहक वह होता है, दूसरा नहीं। इसी लिये काम लोकोत्तर कमनीय और कुसुमायुध है। उसकी सहधर्मिणी रति है, जो प्रेममयी, यासक्तिमयी, रमणशीला और क्रीड़ाकला-पुत्तलिका है। काम यदि सौदर्य-सरसीरुह है, तो वह उसकी शोभा, काम यदि राकामयंक है, तो रति उसकी कौमुदी; शृगार रस का दानो के साथ आधार-आधेय का संबंध है। शृंगार रस शिशु का एक जनक है, और दूसरी जननी । मानव हृदय काम-रति-परायण है. अतएव उसके प्रांगण में प्रायः शृंगार रस शिशु रमण करता रहता है। जिसका परिणाम वे ललित कलाए हैं जिनसे सारा धरातल ललितभूत है ! सुदर-सुंदर चित्र, तरह-तरह के वमन-आभूपण, कोमल कात विछाने, नयनरंजन सामग्री. लोकमोहन पालोक. गगनचुंबी प्रासाद, सुसजित उद्यान. मनोहर नहरे, अनेक देव दुर्लभ विभव और बहुत-से 'अपूर्व मुखमाधन, मनुष्य जाति की सौंदर्यप्रियता से ही प्रसूत हैं। संगीत माहित्य के सूक्ष्म से.मूक्ष्म याविष्कार, म्वर ध्वनियों की लाला- चितकर लहरे, विविध वाद्ययंत्रो के मधुर निनाद. नृत्य और नृन के .
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