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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

यह है किसका आह्वान? यह एक कल्पना मात्र है या इसमें कुछ वास्तविकता? भी है? यदि कल्पना है तो इसकी सार्थकता किस तरह सिद्ध होती है? यदि वास्तविकता है तो यह क्या है?

हम इसे कल्पना भी कहेंगे और इसे वास्तविकता का रूप भी देंगे— वास्तविकता से हमारा मतलब सत्य से है। पहले यह सिद्ध करना चाहते हैं कि कल्पना कभी निर्मूल नहीं होती—उसमें भी सत्य की झलक रहती है, अथवा यों कहिये कि कल्पना स्वयं सत्य है। आप कल्पना का विश्लेषण कीजिये। वह है क्या चीज? एक बहुत सीधा उदाहरण हमारे सामने यह संसार है। शास्त्र कहते हैं, यह कल्पना है। परन्तु क्या कोई इससे संसार को मिथ्या मान लेता है?—वह उसे सत्य ही देखता है। दूसरे वह अस्तित्वशाली भी है, क्या कोई कह सकता है कि संसार नहीं है? भारत का एक दर्शन संसार का अस्तित्व नहीं मानता। परन्तु यह कब? जब वह ब्रह्म में अवस्थित है। जब ब्रह्म में है तब उसके निकट संसार के ये चित्र भी नही हैं। परन्तु संसारियों के लिये संसार कभी असत्य नहीं कहा जा सकता। इसी तरह कल्पना को भी लोग निर्मूल बतलाते हैं, परन्तु संसार की तरह कल्पना भी साधारण है; वह कभी निर्मूल नहीं कही जा सकती। स्वर्ग और पाताल को कवियों ने अपनी कल्पना के बल पर एक करके दिखाने की चेष्टा की है। उनकी वह कल्पना भी बे-सिर-पैर की नहीं हो पाई। यदि उस कल्पना को वे पूरी न उतार दें तो फिर वे कवि कैसे? एक जगह कविवर रवीन्द्रनाथ ने लिखा है—रात अपने अंधेरे पंख फैलाये। हुए—आ रही है। उनकी इस कल्पना को झूठ बतलाने का अधिकार इस युक्ति से होता है—रात के न पंख होते हैं और न वह उन्हें फैला कर कभी आती है, इस तरह की युक्ति से कल्पना को झूठ बतलाने वाले भ्रम में हैं। इसी कल्पनाको सत्य हम इस युक्ति से कहेंगे—अंधेरे (काले) पंख फैला कर आना स्वाभाविक है और यह स्वाभाविकता पक्षी के लिये है, रात के पंख भले ही न हों, परन्तु यदि रात को पक्षी की उपमा दे कर कवि उसे पंख फैला कर आने के लिये कहता तो यह कोई दोष न था। उपमान-उपमेय साहित्य का एक अङ्ग है, यह सभी साहित्यिक मानते हैं। 'रात, अँधेरे पङ्ख फैला कर आ रही है', यह वाक्य यदि यों कहा जाता—'रात्रि-विहगी अपने अंधकार पंखों को फैला कर आ रही है, तो इसमें किसी को दोष दिखाने का साहस न होता। क्योंकि पंख फैलाना विहगी के लिये ही सिद्ध होता है, रात के हिस्से में रह जाता बस