पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/९०

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८६ रवीन्द्र-कविता-कानन तीज का पतला चांद कुटिया के बाईं ओर-धीरे-धीरे टूट कर गिर रहा है- तो गिर जाय ! मेरी रात, मेरी शान्ति, स्वप्न की गहराई और वह मेरा बहुत ही शीतल निर्वाण, सब कुछ रहा ! अब फिर मैं लौटा-थके और झुके हुए सीस पर तुम्हारा आह्वान ले कर । अच्छा तो अब बतलाओ, मैं क्या बजाऊँ ? -तुम्हारे द्वार पर आज फूलों से क्या सजाऊँ ?--अपना खून बहा कर उससे क्या लिखू ?-अपने प्राणों का उत्सर्ग करके उससे क्या सीखू ?-क्या काम करू ? अगर आँखें नींद से मुंद जायें, ढीला हाथ अगर पहले की निपुणता भूल जाय, अगर हृदय को बल न मिले, आँखों में आंसू आ जायें, बात रुक जायें, तो मेरी ओर घृणा से न ताकना-अनादर की दृष्टि से मेरा अपमान न करना; ऐ निर्दये ! याद रखना, तुम्हारे असमय के आह्वान को भी मैंने मान लिया था । मुझ से सेवक तुम्हारे द्वार पर हजारों हैं, उन्हें छुट्टी मिल गई है, वे सब एकत्र हो रास्ते के दोनों ओर सो रहे हैं । देवि, तुम्हारी सेवा करके केवल मुझे ही झुट्टी नहीं मिलती, सभी समय मेरी पुकार होती है; अनेक सेवकों में तुमने मुझे ही चुन लिया है, इस दुरूह सौभाग्य की रक्षा मैं दिलोजान से कर रहा हूँ। इसी गर्व से मैं तुम्हारे द्वार पर जागता रहूँगा, झपकियाँ भी न लूंगा, इसी वर्ग से मैं अपने कष्ट में वरमाल्य सा तुम्हारे आह्वान को धारण करूंगा। "हबे, हवे, हबे जय हे देवी, करिने भय, हबो आमी जयी! तोमार आह्वान-वाणी सफल करिबो रानी, हे महिमामयी। कांपिबे ना क्लान्त कर, भांगिबे ना कण्ठस्वर टुटिबे ना वीणा नवीन प्रभात लागी दीघं रात्रि रबो जागि दीप निभिवे ना! कर्भभार नवप्राते नव सेवकेर हाते करि जाबो दान मोर शेष कंठ स्वरे जाइबो धोषणा करें तोमार (हे देवि, मुझे भय नहीं है, मैं जानता हूँ, मेरी विजय होगी। हे रानी, हे आह्वान !"