पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/८७

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रवीन्द्र-कविता-कानन ८३ आह्वान ?" नयन पल्लव परे स्वप्न जड़ाइया धरे थेमे जाय गान; क्लान्ति टाने अङ्ग मम प्रियार मिनति सम एखनो (संध्या उतर रही है । नींद से उसकी आँखें अलसाई हुई हैं, उसके मोने का आंचल खुल-खुलकर गिर रहा है, उसके हाथ में प्रदीप की शिखा कैसी शोभा दे रही है । झिल्लियों के स्वर ने रुदन के कल्लोल पर एक घोर यवनिका खींच दी है ! रात का अंधेरा उस पार के काले तट की स्याही को और गहरा कर देता है । उस गहरे अंधेरे में आँखें कहीं डूबती चली जाती है, इसका कुछ ओर- छोर नहीं मिलता ! आँख की पलकों को स्वप्न जकड़े लेता है, गाना भी रुक जाता है, प्रिया की मिन्नत की तरह क्लान्ति मेरे अंगों को समेटती है, और तुम अब भी मुझे बुला रही हो?) "रै मोहिनी, रे निष्ठुरा ओरै रक्त-लोभानुरा कठोर स्वामिनी, दिन मोर दिनू तोरे शेपे निते चास हरे आमार यामिनी, जगते सवारी आछे संसार-सीमार काछे कोनो खाने शेष, केनो आसे मम च्छेदि, सकल समाप्ति भेदि, तोमार आदेश? विश्व जोड़ा अन्धकार सकलेरी आपनार एकेलार स्थान, कोथा होते तारो माझे विद्यतेर मतो बाजे तोमार आह्वान ?" (अयि मोहिनी-निष्ठुर-खून की प्यासी –मेरी कठोर स्वामिनि ! अपना दिन तो मैंने तुझे दिया अब मेरी रात भी तू हर लेना चाहती है ? संसार में, संसार की सीमा के पास, किसी जगह, सब की समाप्ति है, तो फिर मर्म को छेद कर सब समाप्तियों का भेद करता हुआ तेरा आदेश मेरे पास क्यों आता है ? यह विश्व भर में जुड़ा हुआ अंधेरा-यहाँ सब के लिये अकेली जगह अलग T-