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रवीन्द्र-कविता-कानन
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करपद्म परशे शान्त हबे सव-दुःख ग्लानी
सर्व अमङ्गल! लुटाइया रक्तिम चरण तले
धौत करि दिव पद आजन्मेर रुद्ध अश्रु जले।
सुचिर संचित आला सम्मुख करिया उद्घाटन
जीवनेर अक्षमता कांदिया करिबे निवेदन,
मागिब अनन्त क्षमा! हय तो घुचिवे दुःख निशा;
तृप्त हवे एक प्रेमे जीवनेर सर्व प्रेम तृषा!"

(कवि तुम क्या गाओगे?—क्या सुनाओगे? यह गाना और सुनाना सब व्यर्थ है। बल्कि यह कहो कि अपने मुख और दुःख मिथ्या हैं। जो मनुष्य अपने स्वार्थ में पड़ा हआ है, जो बृहत् संसार से विमुख है, उसने बचना नहीं सीखा! महाविश्व की जीवन-तरंगों पर नाचते हुए, सत्य को ध्रुवतारा करके, निर्भय हो कर हमें तेजी के साथ बढ़ना होगा। हम मृत्यु की शंका नहीं करते। हमारे दुर्दिन की अश्रु जलधारा मस्तक पर झरती रहेगी और उसी के भीतर से हमारा अभिसार उसके निकट जाने के लिये होगा जिसे हम हर जन्म से अपना जीवन-सर्वस्व धन देते आ रहे हैं।× × × उसी के लिये, रात में—अंधेरे में—आँधी, तूफान और वनपात में भी मानव-यात्री अन्तर-प्रदीप को जला कर उसे सावधानी से पकड़े हुए एक युग से दूसरे युग की ओर चला जा रहा है। × × × वह संकट के आवर्ती से निर्भय हो कर दौड़ा चला जा रहा है। उसने विश्व का विसर्जन कर दिया है, उसने हृदय खोल कर निर्यातन स्वीकार कर लिया है, उसने मृ के गर्जन को संगीत की तरह सुनाया है। × × × × × अपने हृदय-पिण्ड को छिन्न करके, रक्त पद्म की तरह अर्घ्य और उपहार के रूप में जीवन भर के लिये, भक्तिपूर्वक उसने उसकी अन्तिम पूजा की है—मृत्यु के द्वारा अपने प्राणों को कृतार्थ करके मैंने सुना है, उसी के लिये राज पुत्र ने फटे कपड़े पहने हैं—विषयों से विरक्त हो कर वह रास्ते का, भिक्षुक बन गया है। × × × उसके प्रियजनों ने एक अत्यन्त परिचित अवज्ञा के द्वारा उसका परिहास किया है; परन्तु वह, उन्हें क्षमा करके, करुणा पूर्ण नेत्रों से चुपचाप चला गया है—हृदय में अपनी निरुपमा सौन्दर्य-प्रतिमा का ध्यान लेकर। × × × मैं तो बस इतना ही जानता हूँ कि वह उसी की महान मंगल-ध्वनि है जो समुद्र में और समीर में सुन पड़ रही है, नील अम्बर को घेर कर लोटता हुआ यह उसी के अंचल का