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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

बाजाते बाजाते ताई मुग्ध होये आपनार सुरे
दीर्घ दिन दीर्घ रात्रि चले गेनु एकान्त सुदूरे
छाड़ाये संसार सीमा !—से वांशीते सिखेछि जे सुर
ताहारी उल्लाले यदि गीतशून्य अवसाद-पुर
ध्वनिया तुलित पारी; म त्युञ्जयी आशार संगीते,
कर्म हीन जीवनेर एक प्रान्त पारी तरंगिते
सुधू मुदतर तरे, दुःख यदि पाय तार भाषा,
सुप्ति होते जेगे उठे अन्तरेर गभीर पिपासा
स्वर्गेर अम त लागी, तवे धन्य हबे मोर गान,
शत शत असन्तोष महागीते लभिवे निर्वाण!,

(कवि! तो फिर बैठे क्यों हो?—उठो—चलो, तुम्हारे पास कुछ नहीं है?—प्राण?—प्राण तो हैं। बस इतना ही अपने साथ ले लो,— आज जरा अपने प्राणों का दान तो कर के देखो। देखो-यहाँ बड़ा दुःख है—बड़ी व्यथाएँ!—देखो अपने सामने जरा उस दुःख के संसार को—बड़ा ही दरिद्र है—शून्य है—क्षुद्र है—बड़ा ही क्षुद्र—अन्धकार में बद्ध हो रहा है!—सुनो उसे अन्न चाहिये-प्राण चाहिये—आलोक चाहिये—खुली हवा चाहिये। और?—और चाहिये बल-स्वास्थ्य-आयु, आनन्द से भरी, चमकीली, और हृदय दृढ़,—साहस सुविस्तृत। इस दीनता के भीतर कवि! एक बार-बस एक बार स्वर्ग से विश्वास की छबि उतार लाओ। रंगमयि कल्पने! अब मुझे लौटा संसार के तट पर ले चल-हवा के झोंकों में, तरंगों में, अब मुझे न झुला—अपनी मोहिनी माया में अब मुझे न मोहनिर्जन और विषाद से गहरी अन्तःस्तल की कुंज-छाया में अब मुझे बैठा न रख। दिन बीत जाता है, शाम हो आती है; दिशाओं को अन्धकार ढक लेता है; आश्वास-तक-न-देने वाले उदास वायु में सांस ले-ले कर बन रो उठता है! यहाँ से खुले आकाश के नीचे, धूलि-धूसर फैले हुए राज-पथ में, जनता के बीच, मैं निकल गया। पथिक—ओ पथिक! कहाँ जाते हो? मुझ से तुम्हारा पहले का कोई परिचय तो नहीं है—परन्तु सुनो, मेरी ओर जरा दृष्टि फेरो; मुझे अपना नाम तो बतलाओ-मुझ पर अविश्वास न करो, मैं एक अजीब—जान पड़ता है, सृष्टि से अलग हूँ, परन्तु बहुत दिन मैं इस सृष्टि में रह भी चुका हूँ—दिन-रात अकेला, बिना-साथी का। इसीलिये तो मेरा आदमी हूँ