पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/७२

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रवीन्द्र-कविता-कानन है, उसे भी, पद-पद पर, जीर्ण-लोकाचार जकड़ लेते हैं । जो आम रास्ता है- जिस पर लोग सब समय चलते-फिरते हैं, उसमें कभी घास नहीं उग सकती। इसी तरह, जो जाति कभी चलती नहीं, उसके पथ पर तन्त्र, मंत्र और संहिताएँ भी पंगु हैं।) कंधे में भिक्षा की झोली डाल कर जो लोग राज्य-प्राप्ति की आशा से दूसरों का दरवाजा खटखटाया करते हैं। उनके प्रति विदेशियों का कैसा भाव है, इसके सम्बन्ध में भी महाकवि की उक्ति सुन लीजिये । परन्तु पहले हम इतना कह देना चाहते हैं कि रवीन्द्रनाथ अपनी कविता में व्यक्तिगत आक्षेप करके किसी का दिल नहीं दुखाना चाहते । वे जो कुछ कहते हैं, अपने स्वदेश को लक्ष्य करके कहते हैं-- "जे तोमारे दूरे राखि नित्य घृणा करे हे मोर स्वदेश, मोरा तारी काछे फिरी सम्मानेर तरे परी तारी वेश! विदेशी जानना तोरे अनादरे ताई करे अपमान; मोरा तारी पिछे थाकी योग दिते चाई आपन सन्मान ! तोमार जे दैन्य मातः ताई भूषा मोर केन ताहा भूली, परधने धिक् गर्व, करी कर जोड़ भरी भिक्षा-झूली ! पुण्य हस्ते शाक अन्न तुली दाव पाते ताई जेनो रुचे, मोटा वस्त्र बुने दाव यदि निज हाते ताहे लज्जा घुचे ! सेई सिंहासन यदि अञ्चलटी पातो करो स्नेह दान; जे तोमारे तुच्छ करे; से आमारे माता कि दिवे सम्मान ।"