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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

दिया था। महाकवि के हृदय में ईर्ष्या और द्वेष की एक कणिका भी नहीं देख पड़ती। वे अपनी हृदयहारिणी वर्णना में किसी द्वेष-भाव-मूलक कविता की सृष्टि नहीं करते। वे संसार को वही भाव देते हैं जो उन्हें अपने पूर्वजों से उत्तराधिकार के रूप में मिले हैं। जिस तरह वे दूसरी जातियों को जाति-प्रेम के नाम पर खून की नदियाँ बहाते हुए देख कर घृणा पूर्ण शब्दों में याद करते हैं, उसी तरह अपने देश के उद्धार के लिये भी, वे उसे क्रान्ति का पाठ नहीं पढ़ाते। बे तो उसे, प्रतिभा और साहस, धर्म और विश्वास, देव और पुरुषकार की सहायता से, निरस्त्र होकर भी संसार के समक्ष वीर्य का उदाहरण रखने के लिये उपदेश देते हैं। यही भारतीयता है और यही उन्होंने जीवन में परिणत कर दिखाया है। उन्होंने अनुभव किया है, संसार के अन्तःस्तल में सर्वव्यापी परमात्मा का ही स्थान है, अतएव बे विरोधी भाव के द्वारा संसार में अपनी युक्ति के बढ़ाने का उपदेश कैसे दे सकते हैं? इस सम्बन्ध में वे स्वयं कहते हैं—

तोमार निर्दीप्त काले
मुहर्तेई असम्भव आसे कोथा होते
आपनारे व्यक्त करी आपन आलोते
चिर-प्रतिक्षित चिर-सम्भवेर वेशे!
आछो तुमि अन्तर्यामी ए लज्जित देशे,
सबार अज्ञात सारे हृदये हृदये
गृहे-गृहे रात्रि-दिन जागरुक होये
तोमार निगूढ़ शक्ति करितेछे काज
आमी छाडीनाई आशा ओगो महाराज!

(जब तुम्हारा निर्दिष्ट समय आ जाता है जब असम्भव चिरकाल के आकांक्षित की तरह चिर-सम्भव के रूप में, मुहूर्त में ही अपने को व्यक्त करके न जाने कहाँ से आ जाता है! हे अन्तर्यामिन्! इस लज्जित देश में भी तुम हो। सब के अज्ञात भाव से हृदय-हृदय में—गृह-गृह में जाग्रत रह कर तुम्हारी ही गूढ़ शक्ति अपना कार्य कर रही है। अतएव, हे महाराज! मैंने आशा नहीं छोड़ी।)

देखिये आप महाकवि के भाव को, देखिये उनके हृदय के विश्वास को और