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रवीन्द्र-कविता-कानन
५९
 

तोमारे आपन साथे करिया सम्मान
जे खर्ब वामनगण करे अपमान
के तादेर दिबे मान? निज मन्त्र स्वरे
तोमारेइ प्राण दिते जारा स्पर्धा करे
के तादेर दिबे प्राण? तोमारेओ जारा
भाग करे, के तादेर दिबे ऐक्य धारा?

(हे ईश्वर! तुम्हारे सैकड़ों टुकड़ों में बँटे हुए जो लोग तुम्हारे ही छोटे-छोटे स्वरूप हैं—जो लोग मिट्टी पर लोटते हैं और उसी में जिन्हें तृप्ति मिलती है और आनन्द मे वहीं हो जाते हैं, आज अवज्ञापूर्वक सम्पूर्ण संसार उनका सिर कुचल रहा है,—उन्हें ठोकरें लगा रहा है, जो लोग अपनी मनुष्यता को तिलांजलि दे कर, करते तो हैं तुम्हारी पूजा की बात, परन्तु वास्तव में तुमसे बच्चों का ऐसा खेल किया करते है,—भोग ही जिनका भाव हैं और उसी में जो लोग मुग्ध रहते हैं, वे वृद्ध होते हुए भी शिशु हैं-ये आज सम्पूर्ण विश्व के खिलौने हो रहे हैं। हे ईश्वर! सर्वाकृति वामन होते हुए भी जो लोग तुम्हें अपने ही बराबर बतलाते हैं, ऐसा कौन है जो उन्हें सम्मान दे सके! अपने ही मन्त्र के उच्चारण से जो लोग तुम्हारे लिये अपने प्राणों को निछावर कर देने की स्पर्द्धा करते हैं, ऐसा कौन हैं जो जीवन का संचार करे? जो लोग तुम्हारे भी टुकड़े कर डालते हैं, कहो, उन्हें कौन एकता की रीति बतलाये?)

पूर्वोद्ध त पंक्तियों में महाकवि ने भारत के धर्मध्वजियों और उनके विचार की खूब धूल उड़ाई है। आगे भारत की वर्तमान परिस्थिति में जो लोग कराह रहे हैं, उनके सम्बन्ध में लिखते हैं—

"आमरा कोथाय आछि कोथाय सुदूरे
दीपहीन जीर्ण भीत्ति अवसाद-पुरे
भग्न गृहे; सहस्रर भृकुटिर पिछे
कुब्ज' पृष्ठे नतशिरे; सहस्रर पिछे
चलियाछि सहस्रर तर्जनी-संकेते
कटाक्षे कापियाँ; लइयाछि सिर पेते
सहस्र शासन-शास्त्र; संकुचित-काया
कांपितेछि रचि निज कल्पनार छाया