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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

जहाजों की। भूख के मारे जब पेट में चूहे कलाबाजियाँ खाने लगेंगे तब बन्दूक में संगीन चढ़ा कर दिन भर में पचास मील का डबल-मार्च कैसे किया जायगा? सारी करामात रसद की है। भारत में जितना अन्न पैदा होता है उससे भारत अपनी रक्षा और दूसरों पर विजय प्राप्त करने के लिये चार करोड़ फौज सब समय तैयार रख सकता है। पाठक, ध्यान दीजिये, भारत सदा के लिये—सब समय मैदाने जंग पर डटे रहने के लिये चार करोड़ सेना की पीठ ठोंकता है। अब उसकी शक्ति का अन्दाजा आप सहज ही लगा सकते हैं। अस्तु! इसकी पुष्टि तब और हो जाती है जब वे कहते हैं, जिस नाव पर से लाखों मनुष्य पार होते हैं, उसका तख्ता-तख्ता अलग करके यह समुद्र को पार करना चाहता है। भारत में बहुमत, सम्प्रदाय विभाग, संघशक्ति के कट-छंट कर टुकड़ों में बट जाने पर रवीन्द्रनाथ व्यंग कर रहे हैं, और इसके भीतर जो शिक्षा है, वह स्पष्ट है कि अब 'अपनी डफली और अपना राग' छोड़ो—यह 'अब' ढाई चावलों की खिचड़ी अलग पकाने का समय नहीं है, इससे देश की नाव समुद्र से पार नहीं जा सकेगी, देश के पैरों की बेड़ियां नहीं कट सकेंगी।

आगे चल कर आप अपने अक्षय तूणीर से बड़े-बड़े विकराल अस्त्र निकालते हैं। इनका संधान देश के उन साधुओं पर किया जाता है जो मुफ्त ही का धन हजम कर जाया करते हैं और काम जिनसे कुछ भी नहीं होता। मन्दिर के विशाल मंच पर कुछ मंत्र कह कर देश के उद्धार का द्वार खोलने वाले इन बबुला भगत साधुओं को आपकी उक्ति से करारी चोट पहुँचती है। इससे उनके दुराचारों को भी कोई चोट पहुँचती है या नहीं, वह हम नहीं कह सकते हैं—

"तोमारे शतधा करि शुद्र करि दिया
माटीते लुटाय जारा तृप्त सुप्त हिया
समस्त धरणी आजि अवहेला भरे
पा रेखेछे ताहादेर माथार ऊपरे।
मनुष्यत्व तुच्छ करि जारा सारा वेला
तोमारे लइया सुधु करे पूजा खेला
मुग्ध भाव भोगे;—सेइ बृद्ध शिशुदल!
समस्त विश्वेइ आजि खेलार पुत्तल!