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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

प्रथम-प्रभात उदय तव गगर्ने,
प्रथम साम-रव तव तपोवने
प्रथम प्रचारित तव वन-भवने
ज्ञान-धर्म कत काव्य-काहिनी
चिर-कल्याणमयी तुमिधन्य,
देश-विदेशे वितरिछअन्न;
जाह्नवी यमुना विगलित-करुणा,
पुण्य पीयूष-स्तन्य वाहिनी!'

इसका अर्थ खुलासा है। पाठक को इसके समझने में कोई दिक्कत न होगी।

रवीन्द्रनाथ देश की कल्याण-कामना करते हुए परमात्मा से जिस शब्दों में प्रार्थना करते हैं उससे उनके हृदय की छिपी हुई मर्म-पोड़ा के साथ उनके प्रांजल विश्वास का एक बहुत ही भावमय चित्र पाठकों के सामने अंकित हो जाता है। देश की दीनता का अनुभव कितने गहरे पैठ कर रवीन्द्रनाथ करते हैं और उसके स्वरूप की पहचान करा देने के लिये अपने अक्षय शब्द-भंडार से कैसे अर्थव्य और अजेय शब्दास्त्रों का प्रयोग करते, यह भी पाठकों के लिये एक ध्यान देने की बात है। रवीन्द्रनाथ उपदेशक के आसन पर बैठ कर, यह करो—यह न करो, कह कर उस पर उपदेशों की बौछार नहीं करते। वे कवि के ही शब्दों में जो कुछ कहते हैं, कहते हैं—

"अन्धकार गर्ते थाके अन्ध सरीसृप,
आपनार ललाटेर रतन-प्रदीप
नाहीं जाने; नाहीं जाने सूर्यलोक-लेश!
तेमनि आँधारे आछे एई अन्ध-देश
हे दण्ड विधाता राजा, ये दीप्त रतन
पराये दियेछो भाले ताहार यतन
नाहीं जाने, नाहीं तोमार आलोक!
नित्य बहे आपनार अस्तित्वेर शोक
जनमेर ग्लानि! तब आदर्श महान
आपनार परिमापे करि खान खान