बड़ी मर्म-स्पर्शनी कविताएँ लिखी हैं। उनकी इस विषय की कविताओं में एक खास चमत्कार यह है कि वर्तमान समय के कवि यशःप्रार्थी हो कर ही कविता लिखने का दुस्साहस करने वालों की तरह, उनकी कविता में कहीं हाय-हाय का नाम-निशान भी नहीं रहता; किन्तु वह उनकी दूसरी कविताओं की तरह सरस, मर्मस्पर्शनी और भावमयी होती है; दूसरे भारतीयता क्या है और किस राह पर चलने से देश का भविष्य उज्ज्वल होगा—कैसे उसे अपनी पूर्व अवस्था की प्राप्ति हो सकेगी, यह महाकवि ने अपनी देश-विषय की कविताओं में बड़ी निपुणता के साथ अंकित कर दिखाया है। आदर्श उनका वही है जो आर्य-महर्षियों का था और पथ-प्रदर्शन भी वही जो वेद और शास्त्रों का है। कवित्व का कवित्व, उपदेश का उपदेश और भारतीयता की भारतीयता।
"नयन मुदिया सुनि गो, जानिना,
कोन अनागत वरषे
तब मंगल-शंख तुलिया
बाजाय भारत हरणे!
डुबाये धरार रण-हुँकार
भेदि बणिकेर धन-झंकार
महाकाश-तले उठे ओंकार
कोनो बाधा नाहीं मानी!
भारतेर श्वेत-हृदि-शतदले
दाँडाये भारती तव पदतले
संगीत ताने शून्ये उथले
अपूर्वमहावाणी
नयन मूदिया भावीकाल पाने
चाहिनु, सुनिनु निमिषे
तव मङ्गल-विजय-शङ्ख
बाजिछे आमार स्वदेशे!"
(आँखें बन्द करके मैंने सुना, हे विश्वदेव, न जाने जिस अनागत वर्ष में, तुम्हारा मंगल-शंख ले कर भारत आनन्द पूर्वक बजा रहा है। संसार के संग्राम-हुंकार को प्लावित करके, बरिणकों के धन-भंकार को भेद कर भारत के ओंकार की ध्वनि महाकाश की ओर बढ़ रही है, वह कोई बाधा नहीं मानती। भारत